सैयद हबीब, उदयपुर
जिस ज़मीन पर कभी सागर झील की लहरें इठलाती हैं, जहां मछलियां पानी में अठखेलियां करती हैं और जहां उदयपुर की हवाओं में नमी और ताज़गी घुली रहती है, वहां आज एक भव्य होटल खड़ा है—सितारा रैफल्स। इस होटल की नींव में सीमेंट से ज्यादा उदयपुर सागर झील का दर्द और बेबसी दफन है। और विडंबना देखिए, इसी होटल के आलीशान राइटर्स बार में बैठकर ट्वींकल खन्ना ने अपनी किताब “वेलकम टू पैराडाइज़” के दर्द भरे किस्से सुनाए।
यह वही झील है जिसने सालों तक आसपास के लोगों को पीने और सिंचाई का पानी मुहैया करवाया, यहां की खूबसूरती का श्रृंगार किया, लेकिन जब पूंजीपतियों और रसूखदारों की नज़र इस पर पड़ी, तो इस झील का नसीब भी बदल गया। अब यहां झील में सितारा होटल की इमारत नज़र आती हैं। झील के इको-सिस्टम को उजाड़कर खड़े किए गए इस “पैराडाइज़” में अब दर्द की कहानियां बेची जा रही हैं!
पानी के आंसू और लक्ज़री का खेल
ट्विंकल खन्ना की किताब में अकेलेपन, टूटे दिलों और धोखे की कहानियां भले ही हों, लेकिन झील की कहानी उनसे ज्यादा दर्दनाक है। झीलों का दम घोंटकर बनाए गए इन सितारा होटलों में बैठकर दर्द पर चर्चा करना भी एक अजीब सा व्यंग्य लगता है। अगर सच में ट्वींकल खन्ना को मानवीय दर्द और प्रकृति से प्रेम है, तो उन्हें एक नई किताब लिखनी चाहिए—”बर्बाद होता स्वर्ग”—जिसमें इस झील के दर्द और उजड़े पर्यावरण की कहानी हो। और फिर इस किताब का विमोचन किसी पांच सितारा होटल में नहीं, बल्कि झील किनारे या किसी सार्वजनिक स्थान पर होना चाहिए। तभी यह लेखनी सार्थक होगी!
नेताओं की जल संरक्षण पर संगोष्ठी— पानी में छेद करने वाले ही नाव के खेवनहार
अब बात सिर्फ ट्वींकल खन्ना तक सीमित नहीं है। “वाटर विजन 2047” नामक जल संरक्षण पर राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस भी उदयपुर में हो रही है, और इसे कहां रखा गया है? एक और पांच सितारा होटल में, जो झीलों के कैचमेंट एरिया को बर्बाद कर बनाया गया! सम्मेलन में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री सीआर पाटील और मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा भी मौजूद होंगे। सवाल ये है कि क्या ये नेता जल संरक्षण पर भाषण देने से पहले ये देखेंगे कि जिस होटल में वे ठहरे हैं, उसने झीलों को कितना नुकसान पहुंचाया है?
विडंबना यह भी है कि यही सब कांग्रेस के शासन में भी हुआ था। तब भी राष्ट्रीय सम्मेलन ऐसे होटलों में ही हुए, जहां पहाड़ियों को काटकर आलीशान इमारतें खड़ी की गईं। पार्टी कोई भी हो, सत्ता की मलाई चखने वालों को सिर्फ सुविधा चाहिए, प्रकृति बचे या उजड़े, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
झीलें रो रही हैं, मगर कोई सुनने वाला नहीं!
उदयपुर की झीलें अब एक खामोश कराह में बदल चुकी हैं। इसी तरह झीलें और कैचमेंट एरिया बर्बाद होता रहा तो यहां पानी नहीं कंक्रीट ही दिखाई देगा। नेता जल संरक्षण की बात करेंगे, लेखक दर्द की कहानियां सुनाएंगे, लेकिन झील की कहानी सुनने वाला कोई नहीं होगा।
शहर में अब भी वक्त है कि हम यह समझें कि जल स्रोत हमारी धरोहर हैं, ना कि पूंजीपतियों के लिए “विकास” के नाम पर बेचे जाने वाले भूखंड। वरना, आने वाले समय में उदयपुर झीलों का नहीं, सिर्फ उजड़े हुए सपनों का शहर कहलाएगा।
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