
अजमेर। एक सुबह जो अजमेर के लिए सामान्य होनी चाहिए थी, वह चीखों और जलते जिस्मों की बदबू से भर गई। डिग्गी बाजार स्थित ‘नाज़ होटल’ में लगी आग ने सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं जलाए, बल्कि इंसानियत की लापरवाही, सिस्टम की सुस्ती और सुरक्षा के नाम पर चल रहे छलावे की परतें भी राख कर दीं।
चार जिंदगियां—जिनमें एक मासूम चार साल का बच्चा और एक महिला भी शामिल है—जिंदा जल गईं। मौत को पल-पल नज़दीक आते देखना और फिर उसी की आगोश में चले जाना… इससे ज़्यादा भयावह और क्या हो सकता है? लेकिन ये सिर्फ आग नहीं थी, ये सिस्टम की उन चिंगारियों की परिणति थी, जो बरसों से सुलग रही हैं।
एक मां ने अपने डेढ़ साल के बच्चे को आग से बचाने के लिए खिड़की से नीचे फेंक दिया। सोचिए, एक मां के दिल पर क्या बीती होगी, जब उसने मौत और ज़िंदगी के बीच अपनी कोख का टुकड़ा उछाला होगा? यह दृश्य केवल दिल दहला देने वाला नहीं, बल्कि हमारे समाज और प्रशासन के खोखले इंतजामों पर करारी चोट है।
होटल पांच मंजिला था लेकिन सुरक्षा के पांच नियम भी पूरे नहीं किए गए। रास्ता संकरा था, फायर ब्रिगेड देर से पहुंची और दमकल कर्मी खुद बीमार पड़ गए। सवाल यह है कि क्या आग से ज्यादा खतरनाक हमारी व्यवस्था की सुस्ती नहीं?
प्रत्यक्षदर्शी मांगीलाल की बातों से साफ है कि पहले धमाका हुआ, फिर अफरा-तफरी मची। होटल में मौजूद लोगों ने खुद कांच तोड़े, बच्चों को गोद में पकड़ा और ऊपर से छलांगें मारीं। अगर आग से ज्यादा तेज कोई चीज़ थी, तो वह थी लोगों की चीखें और प्रशासन की चुप्पी।
जिनकी ज़िंदगी इस आग में खाक हो गई, उनके लिए अब कोई जांच कमेटी राहत नहीं बन सकती। मोहम्मद जाहिद, उनकी पत्नी रेहाना और नन्हा इब्राहिम एक आध्यात्मिक यात्रा पर निकले थे, लेकिन लौटे एक शव बनकर। दिल्ली से निकले थे अजमेर शरीफ की दुआ लेने, लेकिन तक़दीर ने उन्हें आग के हवाले कर दिया।
यह हादसा सिर्फ एक लपट नहीं था, ये सिस्टम के उस गलियारे की झलक थी, जहां अग्निशमन की नाकामी, होटल की मनमानी और प्रशासन की उदासीनता मिलकर मौत का रास्ता बना देते हैं।
अब भी अगर हम नहीं जागे, तो अगली आग किसी और मोहम्मद जाहिद, किसी और इब्राहिम, किसी और मां की कोख को जला देगी।
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