
13 मई 2008…
जयपुर की शाम रोज़ की तरह गुलाबी थी, लेकिन किसे पता था कि इस शाम के साथ शहर की रगों में हमेशा के लिए डर भर जाएगा। एक के बाद एक आठ धमाके हुए। खून, चीखें, भगदड़… और फिर सन्नाटा। 71 लोग मर चुके थे, और शहर की सड़कों पर सिर्फ एक सवाल गूंज रहा था—”क्यों?”
लेकिन उस दिन एक बम और था। नौंवा बम।
वो चुपचाप चांदपोल के रामचंद्र मंदिर के पास साइकिल पर रखा गया था। शायद उसकी घड़ी भी टिकी-टिकी कर रही थी, लेकिन वक्त ने उसे फटने से पहले ही रोक दिया। पुलिस ने बम को डिफ्यूज कर लिया था। वो बम उस दिन नहीं फटा… लेकिन उसकी चुप्पी अदालत की गवाही बन गई।
वक़्त बीता। लोग भूलने लगे। केस की फाइलें मोटी होती गईं। और फिर… 17 साल बाद, वो बम बोल पड़ा।
चार चेहरे, चार कहानियां, एक साज़िश
सैफुर्रहमान, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद सरवर आजमी और शाहबाज अहमद—चार नाम, जो उस दिन शहर को लहूलुहान करने की कोशिश में शामिल थे। तीन को पहले फांसी की सज़ा सुनाई गई थी, पर हाईकोर्ट ने बरी कर दिया।
लेकिन जिंदा बम वाले केस ने उन चारों को फिर घसीटा अदालत में।
वो बम जो फटा नहीं, वो अब गवाही दे रहा था।
112 गवाह, 17 साल की गवाही
एटीएस ने 2019 में इन चारों को फिर से पकड़ा। सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल हुई।
एक पत्रकार, एक साइकिल कसने वाला, एक रिटायर्ड अफसर… और कुल 112 गवाहों ने अपनी आवाज़ अदालत तक पहुंचाई।
हर बयान, हर दस्तावेज़, हर गवाह—उस जिंदा बम की सच्चाई को ज़िंदा रखे हुए थे।
कोर्ट में वो दिन : शुक्रवार का दिन था। चारों आरोपी कोर्ट में थे। शाहबाज अहमद, जो जमानत पर था, लखनऊ से पत्नी के साथ पहुंचा था। लेकिन अदालत ने जब सज़ा सुनाई तो चेहरे का रंग उड़ गया।
“ताउम्र सलाखों के पीछे रहेंगे, आखिरी सांस तक…”
जज रमेश कुमार जोशी के इन शब्दों ने कोर्ट रूम में सन्नाटा भर दिया।
और अंत में…
वो बम कभी नहीं फटा, लेकिन वो सबसे ज़ोर से बोला।
उसने बताया कि इंसाफ कभी नहीं रुकता, भले ही वो देर से पहुंचे।
उसने जयपुर की उस शाम की गवाही दी, जब खामोशी में भी चीखें थीं।
उसने बताया कि न्याय भले धीमा हो, लेकिन अंधा नहीं।
और अब, जब भी चांदपोल के उस मंदिर के पास से कोई गुज़रता है, वो जानता है—वो बम फटा नहीं था, ताकि इंसाफ ज़िंदा रह सके।
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