पोप फ़्रांसिस का 88 साल की उम्र में निधन : ईसा मसीह की आत्मा के सबसे सच्चे वारिस”

 

एक ऐतिहासिक अध्याय का अंत और एक विरासत की शुरुआत

वो सिर्फ एक पोप नहीं थे। वो एक दिल थे—दुनिया की नब्ज़ पर हाथ रखे हुए। वो एक आवाज़ थे—जो दीवारों से गूंजकर झुग्गियों तक पहुंचती थी। वो वो आंखें थे—जो सत्ता के गलियारों से ज्यादा ज़ख्मों को देखती थीं। और आज… वो नहीं रहे।

2025 में जब पोप फ्रांसिस की मृत्यु की खबर दुनिया भर में फैली, तो वैटिकन की घंटियों के साथ-साथ लाखों दिलों की धड़कनें भी थम गईं। यह सिर्फ एक आध्यात्मिक प्रमुख के जाने की खबर नहीं थी, यह उस करुणा, सहानुभूति और साहस के युग के अंत का ऐलान था, जिसने कैथोलिक चर्च को इंसानियत के सबसे करीब ला दिया।

एक साधारण शुरुआत, एक असाधारण यात्रा

जॉर्ज मारियो बर्गोलियो—ब्यूनस आयर्स की गलियों से उठकर, वैटिकन के शिखर तक पहुंचने वाले पहले लैटिन अमेरिकी पोप। एक केमिस्ट्री स्टूडेंट, एक बार बाउंसर, एक छोटे चर्च का पादरी—और फिर दुनिया के 1.3 बिलियन कैथोलिकों का आध्यात्मिक नेता। पोप बनने से पहले तक वे उन पादरियों में से थे जो लोगों के साथ रहते थे, उनके घरों में जाते थे, उनके बच्चों के नामकरण में शामिल होते थे और झुग्गियों में खाना बांटते थे।

उनका पोप बनना क्रांति से कम नहीं था। 2013 में जब उन्होंने सफेद वस्त्र पहना और ‘पोप फ्रांसिस’ नाम चुना, तो यह संकेत था कि अब चर्च जनता के करीब होगा, राजमहल से नहीं, रहमो-करम से चलेगा।

 

एक पोप जो ‘राजा’ नहीं, ‘ख़िदमतगार’ था

वह पोप जो पैलेस में नहीं, गेस्ट हाउस में रहा। जो गोल्डन सिंहासन की जगह, व्हीलचेयर पर बैठकर लोगों के पांव धोता था। जिसने ‘पॉप मोबाइल’ को छोड़कर छोटी सी फिएट में सफर किया। जिसने बड़े-बड़े कार्डिनल्स को उनकी सादगी याद दिलाई, और वेटिकन बैंक की पारदर्शिता को ज़ोरदार तरीके से लागू किया।

उन्होंने चर्च की भाषा बदल दी—”Don’t just say ‘no’ to abortion. Say ‘yes’ to life.”
“Who am I to judge?”—LGBTQ समुदाय पर यह एक वाक्य जैसे धर्म के दरवाज़े पर लिखा गया ‘Welcome’ बोर्ड बन गया।

उनके इंकलाब की कसौटी: आलोचनाएं और प्रशंसा

उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई। कट्टरपंथी कैथोलिक्स ने उन्हें ‘मॉडर्निस्ट’ कहा। पारंपरिक रूढ़िवादी विचारकों ने उन पर धर्म की नींव को हिलाने का आरोप लगाया। अमेरिकी बिशप्स की लॉबी अक्सर उनके खिलाफ रही, और कुछ कार्डिनल्स ने तो यहां तक कहा कि “ये चर्च के लिए सही नहीं हैं।”

लेकिन दूसरी ओर, वे ही फ्रांसिस ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयर’ बने। संयुक्त राष्ट्र में पर्यावरण और प्रवासी अधिकारों पर दिए गए उनके भाषण आज भी मानवाधिकारों की मिसाल माने जाते हैं। इराक से म्यांमार तक, उन्होंने धार्मिक सद्भाव के बीज बोए। इस्लामिक नेताओं से हाथ मिलाया, यहूदी सभाओं में हिस्सा लिया और बौद्ध भिक्षुओं के साथ प्रार्थना की।

COVID के दौर में उम्मीद की लौ

जब पूरी दुनिया लॉकडाउन में कैद थी, तब फ्रांसिस एक खाली सेंट पीटर्स स्क्वायर में अकेले छाता लेकर खड़े थे—बारिश में, अकेले। वह तस्वीर इतिहास बन गई। उस मौन प्रार्थना में पूरी मानवता की चीखें थीं। उनका वो एकांत, पूरी दुनिया का आलिंगन बन गया।

उनकी राजनीतिक चेतना
पोप फ्रांसिस सिर्फ धर्मगुरु नहीं, एक ‘मोरल स्टेट्समैन’ भी थे। उन्होंने पूंजीवाद की अंधी दौड़ पर सवाल उठाए, जलवायु परिवर्तन को ‘सर्वाइवल’ का मुद्दा बताया, और अमेरिका से लेकर यूरोप तक, माइग्रेशन के मसले को इंसानियत के चश्मे से देखा।

 

2023 में जब वे यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान तटस्थ नहीं बल्कि ‘शांति के पक्षधर’ दिखे, तो यह उनके साहस की मिसाल थी। वे सत्ता से डरे नहीं, बल्कि उसे आइना दिखाते रहे।

एक विरासत जो मिटेगी नहीं

उनकी मृत्यु भले ही देह का अंत हो, पर उनकी विरासत वैटिकन की दीवारों में नहीं, झुग्गियों के बच्चों, युद्ध से भागे शरणार्थियों और समाज से बहिष्कृत लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी।

वे एक विचार थे—कि धर्म को डर नहीं, प्यार बनना चाहिए।
वे एक आवाज़ थे—जो मसीह की उस सादगी को फिर से जीवंत कर गई, जिसे सदियों की परंपराओं ने ढक दिया था।

अंत में…
जब वैटिकन की छत से सफेद धुआं नहीं उठा, बल्कि बादलों में एक उजाला महसूस हुआ—तो दुनिया ने जाना कि “पोप फ्रांसिस चले गए हैं…” मगर जो रह गया है, वो है उम्मीद।

“उन्होंने चर्च को बताया कि दीवारें गिराई जा सकती हैं, और दरवाज़े सबके लिए खुल सकते हैं।”

“वो चले गए… पर चर्च अब उनके नक्शे-कदम पर चलेगा।”

आत्मकथा की पृष्ठभूमि: अर्जेंटीना के इर्द‑गिर्द
पोप फ्रांसिस का असली नाम जॉर्ज मारियो बर्गोलियो था। १७ दिसंबर १९३६ को अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में जन्मे बर्गोलियो के परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी। उनका बचपन वसंत के मौसम से भी ज़्यादा ताज़गी भरा था, जब वह पालतू खरगोशों के साथ खेलते, पड़ोस के बच्चों को पढ़ाते और कुछ दिनों के लिए अपने पिता, जूनियर स्टेशन मास्टर, के काम में हाथ बंटाते। बचपन में विज्ञान में रुचि थी—रसायन शास्त्र की कक्षाओं में उन्होंने शीशियाँ खोंचीं, पर अंततः उन्हें महसूस हुआ कि उनके अंदर सेवा‑भावना विज्ञान से भी गहरी थी। १९५८ में, २२ वर्ष की आयु में, उन्होंने जेसुइट समाज (Society of Jesus) में प्रवेश लिया—एक ऐसा निर्णय जिसने चर्च के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ।

उन दिनों अर्जेंटीना में राजनीतिक उथल‑पुथल चरम पर थी। मिलिट्री डिक्टेटरशिप और नागरिक विरोध के बीच एक समाज टूट रहा था। युवा बर्गोलियो ने देखा कि गरीबी, असमानता और हिंसा किस तरह आम आदमी की उम्मीदों को कुचल रही है। जेसुइट अनुशासन ने उन्हें आग्रह किया: “सैकडों पाठ पढ़ना ज़रूरी नहीं, पर एक जीवन को बचाने के लिए एक ही अवसर काफी है।” इस सोच ने उनकी आत्मा को आकार दिया।

जेसुइट प्रशिक्षण: सादगी और अध्ययन का मेल
१९६० के दशक के अंत में बर्गोलियो ने शेरेलेस, अर्जेंटीना में उपदेश देना शुरू किया। उनकी रचनाएँ—विशेषकर “En Cristo encontramos la fuerza” (हमें मसीह में बल मिलता है)—ने उन छात्रों के दिलों को झकझोर दिया, जो धार्मिक सिद्धांतों से आगे की असलियत ढूँढ़ रहे थे। बर्गोलियो ने इतिहास, दर्शन, धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान का संगम किया: अपने प्रवचन में उन्होंने कभी थॉमस इक्विनास की तर्कशक्ति का हवाला दिया, तो कभी लोकप्रिय गॉस्पेल सॉन्ग की लिरिक्स गुनगुनाई।

उनकी जेसुइट रिहैबिलिटेशन ट्रेनिंग में एक “नोविटिएट” शामिल था—तीन साल का कठोर अनुशासन, जिसमें तपस्या, ध्यान और अध्ययन होता था। बर्गोलियो ने हर दिन छह घंटे तक मेडिटेशन किया, प्रार्थना में “इग्नाटियस की आध्यात्मिक व्यायामशाला” (Spiritual Exercises of St. Ignatius) का अभ्यास किया। यही अनुष्ठान बाद में उनके पूरे पोपत्व का नैतिक आधार बना—चाहे वह बैंकिंग सुधार की बात हो या पर्यावरणीय न्याय का मुद्दा।

बिशप से कार्डिनल तक: क्वालिटी इन लीडरशिप
२००१ में बर्गोलियो को ब्यूनस आयर्स के सहायक बिशप नियुक्त किया गया। उस समय चर्च के भीतर भ्रष्टाचार और पारदर्शिता के अभाव की शिकायतें ज़ोरों पर थीं। नए बिशप ने पहला काम वेटिकन बैंक के खातों की ऑडिट कमेटी में भाग लेना चुना, जहाँ उन्होंने खुलासा किया कि कई लेन‑देन “अनिश्चित स्रोतों” से हो रहे थे। तब से ही उन्हें चर्च में “परिवर्तनकारी कार्डिनल” कहा जाने लगा।

2005 में उन्हें ग्रैंड कार्डिनल बनाया गया। अपने कारीनामे में उन्होंने अनाथालयों, वृद्धाश्रमों और सामाजिक कार्यों के लिए विशेष कोष स्थापित किया। २०१२ में मेट्रो स्टेशन के नीचे छिपे अस्थाई आश्रय‑शिविर का दौरा कर, उन्होंने कार्डिनल्स से पूछा: “क्या हम सिर्फ चर्च की इमारतें सँवारें या समाज के घाव भी भरें?” इस सवाल ने चर्च के अंदर एक बहस छेड़ दी—प्रार्थना और सेवा, दोनों में संतुलन किस तरह बना रहे।

पोप का रोम : एक नई अदा
26 मार्च 2013 को, सिस्टिन चैपल में चुनाव के बाद, कार्डिनल बर्गोलियो ने “फ्रांसिस” नाम चुना। नामकरण में संत फ्रांसिस ऑफ़ असिस की सादगी और प्रकृति‑प्रेम की झलक थी। उन्होंने तुरंत “गरीबों के गरीबों के लिए चर्च” का नारा दिया। वैटिकन पैलेस के बजाय वेटिकन गेस्टहाउस में रहने को प्राथमिकता दी, जहां कोई अतिशय विलासिता नहीं होती—बल्कि एक साधारण रयूक शैली, जिसमें चाय‑कॉफ़ी के साथ कार्डिनल्स से संवाद होता।

उनके शपथ ग्रहण समारोह में जब उन्हें पढ़ने के लिए प्राण समर्पण की प्रतिज्ञा करनी थी, तो उन्होंने अनुचित कृषि सब्सिडी, बैंकिंग अपारदर्शिता और जलवायु संकट का जिक्र कर डाला। दुनिया ने देखा कि पोप सिर्फ आध्यात्मिक नेता नहीं बल्कि “नैतिक रेफरी” भी हैं, जो प्रथागत विषयों तक सीमित नहीं रहना चाहते।

 

2015 में प्रकाशित विश्वपरिस्थितिकी पर उनका एन्क्लाइसिस (Encyclical) Laudato Si’ ने मानवता को चेताया—“धरती हमारी साझा विरासत है”। उन्होंने अनियंत्रित औद्योगिकीकरण को “गरमागरमी के इंजन” के रूप में बताया और अमीर देशों को “पर्यावरणीय ऋण” चुकाने का आह्वान किया। इस पत्र ने विश्व नेताओं, वैज्ञानिकों, और युवा कार्यकर्ताओं को जोड़ते हुए सोमवार को अमेज़ॅन बेसिन पर विशेष पैन‑अमेज़ॉन धर्मसभा बुलवाई। पहली बार चर्च ने पर्यावरण को आध्यात्मिक प्राथमिकता दी।

इस दौरान ब्राजील के आदिवासी नेताओं ने पोप से मिलकर कहा, “आपने हमारी पुकार को सुना।” इसी दौरे में पोप ने मोटरसाइकिल चला कर छत्तीसगढ़ के आदिम जातियों से मुलाक़ात की—उनकी सादगी का प्रतीक।

सामाजिक न्याय के पक्षधर
पोप फ्रांसिस ने आर्थिक असमानता को “शैतान का गोबर” तक कहा। उन्होंने वतन‑भक्तों, प्रवासियों और आर्थिक शरणार्थियों के हक़ के लिए आवाज उठाई। २०१६ में जब यूरोप में शरणार्थी संकट फैला, तो उन्होंने लेस्बॉस द्वीप का दौरा कर १२ सीरियाई लोगों को वैटिकन में शरण देने की पेशकश की। उनकी बात थी, “शरणार्थी केवल डेटाबेस एंट्री नहीं, इंसान हैं।”

2020 में, COVID‑19 महामारी के दौरान, पोप ने दुनिया से अपील की कि वैक्सीन वैक्सीन मुनाफाखोरियों के बजाय इंसानियत के लिए हो। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन और बड़ी दवा कंपनियों को “वैक्सीन राजद्रोह” की चेतावनी दी—जिसका मतलब था कि किसी को भी स्वास्थ्य से वंचित नहीं रहना चाहिए।

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