सैयद हबीब, उदयपुर।
15 मिनट की ख़ामोशी, और उस ख़ामोशी में छुपी एक पुरज़ोर सदा—जयपुर समेत मुल्क के मुख़्तलिफ़ शहरों में वक़्फ़ संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ ‘ब्लैकआउट’ की यह मुहिम, न सिर्फ़ एहतिजाज का नया अंदाज़ है बल्कि एक नफ़ीस तरीक़े से अपना एतराज़ दर्ज करवाने की कोशिश भी। मगर सवाल ये है: क्या यह अंदाज़े-एहतिजाज हुकूमत के कानों तक पहुँचने के लिए काफ़ी है?
एहतिजाज का लहजा: पुरसुकून, मगर क्या असरदार?
ब्लैकआउट जैसा पुरअम्न एहतिजाज इस बात का इज़हार है कि मुसलमान अपने एतराज़ को तमीज़, तहज़ीब और ज़िम्मेदारी के साथ बयान करना चाहता है। न कोई नारा, न कोई सड़क पर शोरगुल—बस चंद लम्हात के लिए रौशनी को बंद कर, एक गहराई लिए हुए पैग़ाम देना। मगर क्या यही तर्ज़े-बयान, उस वैधानिक तब्दीलियों को रोक पाने में मददगार होगा जो वक़्फ़ की हस्सासियत को मुतास्सिर कर सकते हैं?
वक़्फ़ संशोधन: हक़ीकी मसअला क्या है?
इस क़ानून की दलील दी जाती है—शफ़्फ़ाफ़ियत और जवाबदेही की। मगर मुस्लिम रहनुमा इसे मज़हबी और समाजी ख़ुदमुख़्तारी में दख़लअंदाज़ी समझते हैं। सवाल यह है कि क्या वाक़ई वक़्फ़ की मौजूदा सरपरस्ती, उस शफ़्फ़ाफ़ियत की मिसाल पेश कर रही है जिसकी दुहाई दी जा रही है?
दरहक़ीक़त, वक़्फ़ जायदादों की बदहाली की तारीख़ आज़ादी के बाद से किसी से छुपी नहीं। ये भी हक़ीक़त है कि अक्सर इन्हीं लोगों के हाथों ये इदारे नाकाम हुए, जो आज इसके हिमायतगर्दार बनकर सामने आ रहे हैं। क्या कभी आम मुसलमान को वक़्फ़ की इन जायदादों से कुछ हासिल हुआ? अगर नहीं, तो फिर मुल्क भर में इन अक्सरी वक़्फ़ जायदादों का तफ्सीली ऑडिट, मालियाती जांच और सरपरस्तों की शनाख्त—ये सब वाजिब हैं। यूं ही नहीं कहा जाता:
“हक़ के लिए जो उठे, वो पहले अपना गिरेबान देखे।”
सियासी ताईद: नमाइंदगी या सियासी साज़िश?
जनाब असदुद्दीन ओवैसी जैसे सियासी किरदारों की शमूलियत इस मुहिम को ज़रूर एक आवाज़ देती है, मगर इसके साए में एहतिजाज की असल रूह कहीं धुंधली न हो जाए, ये भी देखना ज़रूरी है। जब भी मज़हबी मसाइल सियासत का ज़रिया बनते हैं, तब मक़सद अक्सर जज़्बात को हवा देना होता है—मुद्दे पीछे, शोर आगे।
ब्लैकआउट: तअस्सुर में कामयाब, मगर तश्रीअ में नाकाफ़ी?
सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग टॉपिक, मीडिया में ब्रेकिंग ख़बर—ब्लैकआउट ने खबरों की दुनिया में दस्तक तो दी है, लेकिन क़ानून की किताबों में तब्दीली सिर्फ अंधेरा करके नहीं लाई जा सकती। मुनासिब होगा कि ये मुहिम अब मुक़द्दमात, मुज़ाकरात, पार्लियामेंट्री कमेटियों से राब्ता और क़ानूनी तजवीज़ों की सिम्त बढ़े—वर्ना ये एक और ‘इवेंट’ बनकर रह जाएगा।
हुकूमत की ख़ामोशी: बेपरवाही या चालाकी?
अब तक मरकज़ी हुकूमत ने इस पर कोई रद्दे-अमल ज़ाहिर नहीं किया है। ये ख़ामोशी कई मतलब रखती है: या तो ये तहरीक अभी हुकूमत की निगाह में ‘बेमायने’ है, या वो किसी बग़ैर-वज़न एहतिजाज को मजीद हवा देने से बचना चाहती है। बहरहाल, लोकतंत्र में ख़ामोशी भी एक तर्ज़े-बयान है, और हुकूमत की यह खामोशी अब सवाल बनती जा रही है।
एहतिजाज की ज़ुबान को नया तर्ज़ चाहिए
15 मिनट का अंधेरा अगर 15 साल की बेनज़्मी और बेफ़िक्री का जवाब नहीं बन पाया, तो फिर इस एहतिजाज को सिर्फ एक रस्मी इज़हार ना बनने दिया जाए। वक़्फ़ की इज़्ज़त, उसकी खुदमुख़्तारी और साथ ही उसके इस्तेमाल की शफ़्फ़ाफ़ियत—तीनों की ज़मानत की ज़रूरत है। इसके लिए मज़हबी रहनुमा, सिविल सोसाइटी और हुकूमत को एक ही दस्तरख़्वान पर बैठना होगा।
इख़ततामिया
ये एहतिजाज न तो नाजायज़ है, न ही बेमतलब। ये एक परेशान, मगर बेदार तबक़े की वैधानिक सदा है। मगर इसके पीछे अगर खुद-एहतसाबी की रूह नहीं है, तो ये सदा भी बेज़ार हो जाएगी।
वक़्फ़ का मसअला सिर्फ जायदाद का नहीं, बल्कि इमानदारी, अमानत और अद्ल का भी है। सवाल सिर्फ हुकूमत से नहीं, खुद अपने आप से भी होना चाहिए:
“क्या हम वाक़ई रौशनी की तलाश में हैं, या बस अंधेरे की आदत हो चली है?”
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