वैशाख में गूंजी गवरी की थाली : उदयपुर में अदिति मेहता की पुस्तक ‘Playing with the Goddess’ पर विचार गोष्ठी

उदयपुर। मेवाड़ की लोक परंपराएं सिर्फ ऋतुओं या महीनों की मोहताज नहीं होतीं, वे जब भी मंच पर आती हैं, श्रोताओं के दिलों में बस जाती हैं। बुधवार को कुछ ऐसा ही दृश्य विद्या भवन ऑडिटोरियम में उस वक्त नजर आया, जब सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी अदिति घोष मेहता की पुस्तक ‘Playing with the Goddess’ पर आधारित विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ।

वैशाख मास की दोपहरी में गूंजी गवरी की मादल और थाली की स्वर लहरियों ने श्रावण की याद ताजा कर दी। बागडुंडा के लोक कलाकारों ने पारंपरिक गवरी का प्रदर्शन कर न केवल वातावरण को जीवंत किया, बल्कि दर्शकों को गवरी के नैतिक और धार्मिक पक्ष से भी परिचित कराया।

मौखिक परंपरा की दस्तावेजी कोशिश

कार्यक्रम की शुरुआत सेवा मंदिर के महासचिव नरेंद्र द्वारा पुस्तक और गवरी की पृष्ठभूमि के संक्षिप्त परिचय से हुई। चर्चा सत्र में अदिति मेहता ने बताया कि गवरी एक मौखिक परंपरा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी भील समुदाय के माध्यम से जीवित रही है। हर गांव की अपनी गवरी होती है, अपने देवी-देवता, अपने पात्र और अपनी कथा होती है। यह गवरजा माता को समर्पित एक अद्भुत अनुष्ठान है।

अदिति मेहता ने बताया कि यह पुस्तक उनके चार दशकों के शोध और अनुभवों का परिणाम है, जो चार खंडों में विभाजित है।

  • पहले खंड में गवरी का संक्षिप्त परिचय और उसका सांस्कृतिक स्वरूप शामिल है।
  • दूसरे खंड में भील समुदाय के जीवन, उनके रीति-रिवाज, खान-पान, और प्रकृति से उनके संबंध को उकेरा गया है।
  • तीसरे खंड में ‘ऊपत-निपट’ जैसे लोक नाट्य तत्वों का विवेचन किया गया है, जो शिव-गौरी के प्रसंगों पर आधारित होते हैं।
  • चौथे खंड में गवरी के सामाजिक और आध्यात्मिक सरोकारों को रेखांकित किया गया है।

गवरी: संयम, समर्पण और सृजन की परंपरा

गोष्ठी में पर्यावरणविद् बजरंग लाल शर्मा ने गवरी के प्रकृति से गहरे संबंध पर रोशनी डालते हुए कहा कि यह केवल प्रदर्शन कला नहीं, बल्कि एक धार्मिक साधना है। गवरी खेलने वाले कलाकार चालीस दिनों तक संयमित जीवन जीते हैं—मांस, शराब, झूठ, क्रोध और अन्य सांसारिक विषयों से दूर रहते हैं। यह स्वयं में एक जीवंत तपस्या है।

अदिति मेहता ने बताया कि गवरी का मंचन किसी मंच पर नहीं होता, बल्कि गांव की मिट्टी, चौपाल और मंदिर के आंगन में होता है। यहां दर्शक और कलाकार के बीच कोई दीवार नहीं होती। वे एक-दूसरे के सहचर बनते हैं।

अंत में बागडुंडा के कलाकारों ने रचा गवरी का रंग

कार्यक्रम के अंत में बागडुंडा गांव के पारंपरिक कलाकारों ने जीवंत गवरी प्रस्तुत की। थाली की ताल, मादल की लय और लोक गीतों की गूंज ने वातावरण को सात्विक और भावपूर्ण बना दिया। कलाकारों ने ऊपत-निपट के प्रमुख प्रसंगों को मंचित किया और दर्शकों को गवरी की आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव कराया।

‘Playing with the Goddess’ न सिर्फ एक किताब है, बल्कि यह मेवाड़ की मिट्टी में रची-बसी गवरी परंपरा का जीवंत दस्तावेज है। अदिति घोष मेहता का यह प्रयास लोक संस्कृति को संरक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो आने वाली पीढ़ियों को भी अपने सांस्कृतिक मूल से जोड़ता रहेगा।

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