स्मृति शेष : दुनिया से रुखसत हुईं हबीबा बानू, समाजवादी तहरीक की सच्ची आवाज़ और इंसानियत की मिसाल

मैं यहां जिस खवातीन का जिक्र कर रहा हूं, उन्हें आज की पीढ़ी भले ही नहीं जानती हो, लेकिन 20वीं सदी में और 21वीं सदी की शुरुआत में उन्होंने अपने समाज सेवा के कार्य से मिसाल कायम की। जी हां मैं बात कर रहा हूं हबीबा बानू तहसीन के बारे में जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। वे शिक्षाविद स्व. रियाज तहसीन और पर्यावरणविद रजा तहसीन की बहन थीं। समाजवादी तहरीक की बुलंद आवाज़ और अवाम की बे-लौस खिदमतगुज़ार, हबीबा बानू तहसीन 12 अगस्त 2025 को उदयपुर के पंचवटी स्थित अपने मकान में 92 बरस की उम्र में इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत हो गईं। यह सिर्फ़ एक खवातीन का इंतेक़ाल नहीं, बल्कि समाजसेवा, सियासत और इंसानियत के एक सुनहरे दौर का इख़्तिताम है।

हबीबा बानू तहसीन ने बचपन ही से अपने वालिद टी.एच. तहसीन और वालिदा खुर्शीद बानू तहसीन से सीखी हुई तालीम और तर्बियत को अमल में ढालते हुए, किशोरावस्था में ही अपनी ज़िंदगी का रुख़ समाजी ख़िदमत की तरफ़ मोड़ लिया। उन्होंने उदयपुर में लड़कियों और ख़वातीन की तालीम से अपने सफ़र की शुरुआत की।

राजस्थान महिला परिषद, जिसे शान्ता त्रिवेदी ने बुनियाद दी थी, में उन्होंने अहम ज़िम्मेदारियां निभाईं— ख़वातीन की आर्थिक उन्नति के लिए ट्रेनिंग सेंटर क़ायम करना, मोहल्लों में रात की तालीमी क्लासें, सिलाई-कढ़ाई और फ़ूड प्रोसेसिंग के ज़रिये हुनरमंदी का सीखाना, पाकिस्तान से आए मुहाजिरीन के लिए तालीम, सेहत और रोज़गार के मौक़े पैदा करना, और आदिवासी व देहाती इलाक़ों की लड़कियों के लिए हॉस्टल का इंतिज़ाम करना—ये सब उनके बे-मिसाल कामों की एक झलक भर हैं।

अपने शोहर, मशहूर समाजवादी नेता रजनीकान्त वर्मा के साथ मिलकर उन्होंने “बाल संसार” के ज़रिये बच्चों की तालीम में नई तजुर्बात और तजवीज़ें पेश कीं। उदयपुर के यतीमख़ानों का पहला मुकम्मल तफ़्सीलात भरा तजज़िया, राजस्थान का पहला “मोबाइल प्लेनेटेरियम”, और बच्चों के लिए इजाद किए गए तालीमी प्रोग्राम, उनकी सोच की गहराई और जज़्बे की गवाही देते हैं।

सियासत में उनका क़दम डॉ. राममनोहर लोहिया से प्रेरित होकर पड़ा। 1960 के दशक में सोशलिस्ट पार्टी से जुड़कर उन्होंने यूपी और बिहार के दूर-दराज़ इलाक़ों में पार्टी के लिए काम किया। “दाम बांधो”, “भूमिहीनों को ज़मीन”, “अंग्रेज़ी हटाओ”, “जाति तोड़ो” जैसे आंदोलनों में उन्होंने अगुवाई की और कई बार जेल भी गईं। उन्होंने बुल्गारिया में सोशलिस्ट पार्टी की नुमाइंदगी करते हुए आलमी नौजवान महोत्सव में ख़िताब किया, और “भारत-पाक एका समिति” की क़ियादत भी की।

हबीबा बानू तहसीन, समाजवादी महिला सभा की बानी और क़ौमी सदर रहीं, सोशलिस्ट पार्टी की क़ौमी वर्किंग कमेटी और संसदीय बोर्ड की अहम् सदस्य रहीं। राजस्थान समाज कल्याण बोर्ड, केन्द्रीय तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की हिन्दी कमेटी, तहसीन पब्लिकेशन्स और हिमालय फ़ीचर्स की प्रबंधक रहीं।

उन्होंने साप्ताहिक “मंत्रणा” की इदारा संभाला और “जनमुख” के लिए तहरीरी इदारे का काम किया। उनके मज़ामीन, पर्चे और किताबों ने समाजी और सियासी बहस में नई रूह फूंकी।

उनका मानना था कि ख़वातीन ज़्यादा जज़्बाती और पाक-दिल इदारा चला सकती हैं, और अगर देहाती ख़वातीन भी फ़ैसला लेने की सता में शामिल हों, तो मुल्क में बेहतरीन दौर की शुरुआत हो सकती है।

बीमारी के दिनों में— हबीबा बानू तहसीन का सबसे बड़ा सहारा उनके बेटे हिमालय तहसीन बने। उन्होंने महीनों तक अपनी वालिदा की ऐसी ख़िदमत की, जैसे कोई श्रवण कुमार अपनी मां-बाप की करता है। नर्स की तरह देखभाल, हर दवा का वक़्त, हर लम्हा का ख़याल—ये सिर्फ़ फ़र्ज़ अदायगी नहीं, बल्कि मोहब्बत, अदब और एहसान की मिसाल थी। हबीबा बानू के आख़िरी सांस तक हिमालय तहसीन उनकी आंखों के सामने, उनकी दुआओं के साए में रहे।

हबीबा बानू तहसीन का जाना न सिर्फ़ उनके अहल-ए-ख़ानदान, बल्कि हर उस इंसान के लिए सदमा है, जिसने कभी उनकी सोहबत, उनकी रहनुमाई और उनकी दुआ का फ़ायदा उठाया।

इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलैहि राजिऊन।

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