एक अदबी शाम की दिलनशीं दास्तान : “कुछ लफ़्ज़ दिल से निकले थे, कुछ सुरों में बह गए, वो शाम यूं बसी ज़हन में, जैसे ख़्वाब बन गए

उदयपुर। सरज़मीं उदयपुर में वो शाम जब सुर, साज़ और शायरी का समंदर लहराया, तो हर दिल उसी बहाव में बहता चला गया। ऐश्वर्या कॉलेज के सभागार में ‘शायराना उदयपुर’ की जानिब से मुनक्कीद हुई अदबी महफ़िल ने फ़िज़ा को कुछ इस तरह महका दिया कि जैसे जज़्बातों को आवाज़ मिल गई हो और रूह को सुकून।

इस महफ़िल में सिर्फ़ गीत या ग़ज़लें नहीं थीं, बल्कि हर एक सुर में तजुर्बा था, हर एक मिसरे में एक अहसास था।
कार्यक्रम का आगाज़ क्षण प्रभा पालीवाल की सदा से हुआ, जिन्होंने “मेरी आवाज़ ही पहचान है” पेश कर पहली ही सांस में दिल जीत लिया। जैसे सुरों की बारिश से आत्मा तरबतर हो गई हो।

“हर साज़ पर नाम तेरा लिक्खा पाया,
हर गीत में तुझको गुनगुनाया।”

कार्यक्रम को और रंगीन बनाया एडिशनल एसपी बृजेंद्र सोनी ने, जिन्होंने ‘तुम ही तो लाई हो…’ जैसे नग़मे से तालियों की गूंज बटोरी। जब एडवोकेट हरीश पालीवाल ने ‘सुहानी चांदनी रातें…’ गाया और फिर दो शेर पढ़े –"ज़ख्म भले ही अलग-अलग हैं लेकिन दर्द बराबर है" "आंखों की दहलीज़ पर आकर सपना बोला आँसू से, घर तो आख़िर घर होता है" तो पूरी महफ़िल में ख़ामोशी छा गई, बस आंखें बोल रही थीं।

भारत कुमार मीणा ने वीर रस की गर्जना और श्रृंगार रस की नज़ाकत के संग अपने लफ़्ज़ों से फ़िज़ा में एक नया रंग घोला। वहीं डॉ. प्रदीप कुमावत ने ऐसी कविताएं पेश कीं जो आत्ममंथन की गहराइयों से निकली थीं – सीधी रूह को छू लेने वाली।

देवेंद्र हिरण और मुकेश वैष्णव की जुगलबंदी ने जैसे जगजीत सिंह को फिर से महफ़िल में ज़िंदा कर दिया हो। फिल्म बाज़ार की ग़ज़लें जब गूंजीं तो दिल कह उठा –“ज़िंदगी क्या है, एक कहानी है, कुछ ख़ुशी की, कुछ बेबसी की रवानी है।”

ललित कोठारी की आवाज़ जब ‘एतबार’ की मशहूर ग़ज़ल से टकराई तो गूंज देर तक दिलों में रही। वहीं मनीषा बदल और ज्योत्सना जैन की सुरीली अदायगी ने महफ़िल को पुरकशिश बना दिया।

बच्चों ने महाराणा प्रताप पर जो प्रस्तुति दी, वो एक इंकलाबी पैग़ाम था — अतीत से मिलती प्रेरणा, नए सफ़र की शुरुआत।

गगन सनाढ्य, मंज़ूर हुसैन शेख, प्रदीप पानेरी, और माया कुंभट जैसे तमाम अफ़सरान और वकीलों की मौजूदगी में जब हर कोई सुर में शामिल हुआ, तो ये एक सामूहिक एहसास बन गया —“न कोई बड़ा, न कोई छोटा, सुरों के साये में सब एक जैसा।”

मोहन सोनी ने जब बैजू बावरा का गीत गाया, तो जैसे समापन नहीं बल्कि एक ख़ूबसूरत अधूरापन था, जो हर श्रोता के दिल में “कुछ तो बाक़ी रह गया” जैसा असर छोड़ गया।

मनोज गीतांकर, ‘शायराना उदयपुर’ के सरपरस्त ने इस सिलसिले को बरक़रार रखने का जो बीड़ा उठाया है – कि हर महीने के आख़िरी इतवार को सुरों और लफ़्ज़ों की ये रौशनी बिखेरे – वो वाक़ई क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।

मुख्य अतिथि जिला एवं सत्र न्यायाधीश पीएस सिंह चौहान, और विशिष्ट अतिथियों में डॉ. सीमा सिंह, दिनेश कोठारी, उमाशंकर शर्मा, गीतेश श्री मालविया जैसे सख़्शियात की मौजूदगी ने इस महफ़िल को न सिर्फ़ वक़ार बख़्शा, बल्कि ये भी यक़ीन दिलाया कि अदब और फ़न का कारवां चलता रहेगा।

“वो महफ़िलें जो जज़्बात से सजी हों,
वो लम्हें ताउम्र रूह में बसी हों।”

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