आलेख : मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमंद
** दीदीमां… दीदी और मां के भावों को छूकर दिल से निकला एक ऐसा रस पूरित शब्द जिसे सुनकर मन आत्म विभोर और आनंदित हो जाता है।भारतीय संस्कृति में बड़ी बहिन को मां का दर्जा दिया गया है लेकिन यहां क्या छोटे और क्या बड़े, नन्ही सी जान से लेकर राष्ट्र का महानायक भी उन्हें दीदीमां के नाम से संबोधित कर परम सुख की अनुभूति पाता है। वात्सल्य ग्राम वृंदावन में पल रहे उन नौनिहालों की ही नहीं वे हर उस शख्स की दीदी – मां है जो स्नेह की बूंदों से सिंचित रिश्तों की परंपराओं का निर्वहन करते हैं।
‘ साध्वी ऋतंभरा ‘ एक ऐसा नाम है जिसे पूरा राष्ट्र हिंदुत्व का अलख जगाने वाली विदुषी साध्वी के रूप में जानता है। उन्हीं साध्वी ने दीदी और मां का कर्तव्य एक साथ निभाते हुए जिस निर्भीकता से इस राष्ट्र की युवा शक्ति को जाग्रत करने का कार्य किया है वो ऐतिहासिक है।
राम जन्म भूमि आंदोलन को पराकाष्ठा के सोपान तक पहुंचाने से लेकर वात्सल्य ग्राम वृंदावन का सपना साकार करने वाली साध्वी ऋतंभरा ने भाव संबंधों से गूंथा एक ऐसा ग्राम बसाया जहां रक्त संबंध भी फिके लगते हैं। वहां आने वाले नौनिहालों का रक्त किस जाति – धर्म और संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करता है, कोई नहीं जानता। जानते हैं तो सिर्फ मां, मौसी, दादी, नानी, बहिन और भाई के वो भाव भरे रिश्ते, जो सामान्य समाज में पले बढ़े बच्चों ने शायद ही कभी इन सबको एक साथ जिया और अनुभव किया होगा।
जहां रक्त संबंध है वहां स्वार्थ और जहां भाव संबंध है वहां समर्पण अधिक परिलक्षित होता हैं। रक्त संबंधों में आई शिथिलता का कारण काल का प्रभाव है या स्वार्थ सिद्धि की पराकाष्ठा, नहीं मालूम। कोरोना ने भी संबंधों का इम्तिहान लिया था और प्रकृति आज भी ले रही है।
आज रक्त संबंधों में आई असंवेदना की दस्तक हर तरफ सुनाई दे रही है, वहीं दूसरी तरफ दीदीमां ने वृद्धा और अनाथ आश्रम के विकल्प के साथ विधवा और परित्यकता के मजबूर जीवन को संवार कर एक ऐसे कुटुंब की कल्पना को साकार किया जो विचार से परे है। कोई सपने में भी नहीं सोच सकता की इस भौतिक संसार में रक्त संबंधों से बढ़कर भी कोई संबंध हो सकते है।
सही बताऊं तो दुनिया में मेरे जैसे असंख्य लोग हैं जिनके भाग्य में समय से पहले ही मां – पिता का सुख छीन गया लेकिन मुझे तो दीदीमां के रूप में एक ऐसी मां मिल गई जो उनकी हर कमी को पूर्ण करती है। वे मेरी आध्यात्मिक गुरु तो है ही, एक ऐसी मां भी है जिनके स्मरण मात्र से ही जननी-सुख का अहसास होता है।
यही तो चुंबकीय आकर्षण है दीदीमां के विराट व्यक्तित्व में जो हर कोई उनकी तरफ खींचा चला जाता है। शायद उनको भी नहीं मालूम होगा की वो वात्सल्य ग्राम के भीतर ही नहीं, बाहर भी कितने अभागों के भाग्य को वात्सल्य से सिंचित कर रही है। हम किस्मती हैं की काल की कलम ने हमारी कुंडली एक ऐसे काल खंड की बनाई जिसमें आप जेसी साक्षात वात्सल्य मूर्ति स्नेह की वर्षा से सबको सराबोर कर रही है।
दशकों पहले दीदीमां ने जिस बीज का वात्सल्य की उर्वरा भूमि पर बीजारोपण किया था, आज वही बीज फलदार वृक्ष बन चुका है। जिसकी हर टहनी पर खुशबूदार फूल खिले है। वात्सल्य के आंगन से निकले फूलों में से कोई चिकित्सक है तो कोई इंजीनियर, कोई अधिवक्ता है तो कोई राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी में राष्ट्र सेवा में समर्पित हो अपनी खुशबू से वातावरण को महका रहा है। तो आइए…. हम सब उस वात्सल्य ग्राम का हिस्सा बने जहां व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों को संवारने का कार्य किया जा रहा है।
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