पानी की लहरों में डूब गए बचपन : उदयपुर त्रासदी की कहानी

 

उदयपुर। उदयपुर का रविवार अचानक मातम में बदल गया। डबोक थाना क्षेत्र के मंदेरिया गांव में चार मासूम बच्चे—लक्ष्मी, भावेश, राहुल और शंकर—बारिश से भरी खदान में नहाने उतरे और वहीं से उनकी ज़िंदगी का सफ़र हमेशा के लिए थम गया। गांव की सुबह हंसी-ख़ुशी से शुरू हुई थी, लेकिन दोपहर तक हर घर में सन्नाटा पसरा हुआ था।

यह हादसा जितना अचानक हुआ, उतना ही गहरा घाव छोड़ गया। चारों बच्चे सुबह बकरियां चराने निकले थे। रास्ते में वे बारिश से भरी कुंवारी माइंस के पास पहुंचे। पानी चमक रहा था, जैसे बच्चों को खेल और नहाने के लिए पुकार रहा हो। मासूमों ने सोचा भी नहीं था कि इस पानी की चमक उनकी जान ले लेगी। शंकर ने सबसे पहले आवाज़ लगाई कि चलो, नहाते हैं। बाकी बच्चों ने हंसते हुए हामी भर दी। वे पानी में उतरे, छींटे मारे, खेलते-खेलते एक-दूसरे पर हंसने लगे। लेकिन जैसे ही वे थोड़ी गहराई में पहुंचे, उनके कदम डगमगाने लगे। सांसें तेज़ हो गईं, हाथ-पांव मारते हुए वे बाहर निकलने की कोशिश करने लगे। उनकी चीखें पानी में गूंज रही थीं, मगर आसपास मदद के लिए कोई नहीं था। कुछ ही मिनटों में सब शांत हो गया। चार मासूम हमेशा के लिए पानी में समा गए।

जब यह खबर गांव तक पहुंची, तो वहां अफ़रा-तफ़री मच गई। माताएं अपने घरों से दौड़ीं, पिता काम छोड़कर भागे, और गांव का हर शख़्स खदान की तरफ़ उमड़ पड़ा। जब पुलिस और ग्रामीणों ने मिलकर बच्चों के शव बाहर निकाले, तो जो दृश्य सामने आया, उसने हर आंख को नम कर दिया। माएं अपने बच्चों की निर्जीव देह को गले से लगाए रोती रहीं, कोई सिर पटकता रहा, कोई दहाड़ मारकर बेहोश हो गया। गांव की औरतें छाती पीट रही थीं और पुरुष एक-दूसरे के कंधों पर सिर रखकर सुबकते रहे। बच्चों की छोटी बहनें और भाई बेसुध होकर वहीं जमीन पर गिरे पड़े थे।

लक्ष्मी चौदह साल की थी। वह अपने घर की सबसे बड़ी बेटी थी और मां की मददगार भी। छोटे भाई-बहनों की देखभाल वही करती थी। उसकी मां बार-बार यही कहती रही कि मेरी बिटिया तो मेरा दायां हाथ थी, अब मैं किसके सहारे जीऊंगी। लक्ष्मी का सपना था कि वह पढ़-लिखकर डॉक्टर बने। उसके कमरे में खुली हुई किताबें अब उसकी अधूरी कहानी कह रही थीं।

भावेश भी चौदह साल का था और खेलों का शौकीन। क्रिकेट उसका सबसे बड़ा सपना था। गांव की गलियों में अक्सर कहता था कि बड़ा होकर वह टीम इंडिया के लिए खेलेगा। उसका बैट और बॉल अब घर के कोने में पड़ी हैं। उसकी मां रोते-रोते बैट को सीने से लगाती और कहती कि इस बैट को देखकर लगता है जैसे मेरा बेटा अभी बाहर से दौड़ता हुआ आ जाएगा, पर वह कभी नहीं आएगा।

बारह साल का राहुल सबमें सबसे छोटा था। मुस्कुराना उसकी आदत थी। लोग कहते थे कि उसकी हंसी पूरे घर को रोशन कर देती थी। उसकी मां टूटे शब्दों में कह रही थी कि उसने सुबह ही मुझसे कहा था—मां, मैं जल्दी लौट आऊंगा। लेकिन वह लौटकर नहीं आया। अब उसकी मुस्कान सिर्फ तस्वीरों में रह गई है।

तेरह साल का शंकर अपने पिता का सहारा था। खेतों में काम करता और कहता था कि बड़ा होकर वह पूरे खेत संभालेगा। उसके पिता रोते-रोते कहते हैं कि शंकर ने आधे खेत भी नहीं देखे। अब जब वे खेत की मेड़ पर खड़े होते हैं तो नज़र बार-बार उस जगह चली जाती है, जहां उनका बेटा आख़िरी बार खड़ा था।

बच्चों की मौत के बाद गांववालों का ग़ुस्सा माइंस मालिक पर फूट पड़ा। उनका कहना था कि खदान खुली पड़ी थी, सुरक्षा का कोई इंतज़ाम नहीं था। गहराई में भरे पानी ने चार बच्चों की जान ले ली और किसी को परवाह तक नहीं थी। परिजन शवों के साथ धरने पर बैठ गए। माइंस की तरफ़ से मुआवजे के तौर पर प्रति परिवार चार लाख रुपए देने का ऐलान किया गया, लेकिन ग्रामीणों और परिजनों ने यह रकम ठुकरा दी। उनका कहना है कि बच्चों की ज़िंदगी की कीमत इतनी मामूली नहीं हो सकती। वे कम से कम दस लाख और परिवार के किसी सदस्य को नौकरी की मांग कर रहे हैं।

यह हादसा केवल चार बच्चों की मौत नहीं है, यह चार सपनों के टूटने की कहानी है। लक्ष्मी अब कभी अपनी गुड़िया से नहीं खेलेगी, भावेश का बैट कभी गेंद को नहीं छुएगा, राहुल की मुस्कान गलियों में कभी गूंजेगी नहीं और शंकर अब खेतों में पिता का हाथ नहीं बंटाएगा। गांव का हर घर इस शोक में डूबा है।

मंदेरिया गांव की गलियां अब खामोश हैं। वहां जहां कभी बच्चों की चहक सुनाई देती थी, अब मातम की आवाज़ें गूंजती हैं। लक्ष्मी की मां दरवाजे पर बैठी अब भी आसमान की तरफ देखती रहती है, जैसे उम्मीद कर रही हो कि उसकी बिटिया कहीं से लौट आएगी। भावेश का बैट, राहुल की कॉपी और शंकर की छोटी कुदाल घर के कोनों में चुपचाप पड़ी हैं, जैसे वे भी अपने मालिक का इंतज़ार कर रही हों।

यह त्रासदी एक सवाल भी छोड़ गई है। क्यों हमारी खदानें और गहरे गड्ढे खुले पड़े रहते हैं? क्यों वहां सुरक्षा के इंतज़ाम नहीं होते? क्यों प्रशासन पहले से चेतावनी नहीं देता? आखिर क्यों हर बार गरीब और मासूम परिवारों को ही अपनी जान देकर लापरवाही की कीमत चुकानी पड़ती है?

उदयपुर की यह घटना हमें रुलाती भी है और चेतावनी भी देती है। यह बताती है कि हमें ऐसे हादसों को रोकने के लिए सजग रहना होगा। खदानों में सुरक्षा इंतज़ाम करने होंगे, बच्चों को ऐसे स्थानों से दूर रखने के लिए जागरूकता फैलानी होगी और प्रशासन को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी।

चार बच्चों की मौत ने उदयपुर को हिला दिया है। यह केवल एक गांव की त्रासदी नहीं है, बल्कि पूरे समाज के लिए एक सबक है। लक्ष्मी, भावेश, राहुल और शंकर अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी मासूम हंसी, उनके अधूरे सपने और उनके परिवारों का दर्द हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा कि लापरवाही कितनी भयावह हो सकती है।

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