कांग्रेस का जोखिम भरा दांव : उदयपुर में पुराने चेहरों के सहारे नए नतीजों की उम्मीद

उदयपुर। प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने शनिवार को 45 नए जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की है। उदयपुर शहर में फतह सिंह राठौड़ को दोबारा जिलाध्यक्ष बनाकर पार्टी ने एक बार फिर उसी नेतृत्व पर भरोसा जताया है, जिसके कार्यकाल में संगठन ज़मीन दिखाई, दिया लेकिन चुनाव परिणाम अभी वैसे नहीं आए। वहीं देहात में रघुवीर मीणा को जिलाध्यक्ष बना कर “सियासी संजीवनी” दी है।

उदयपुर में कांग्रेस पिछले कई सालों से खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश करती रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि गुटबाजी और रणनीतिक अस्पष्टता ने पार्टी को खड़ा ही नहीं होने दिया। शहर जिला कांग्रेस ने हाल के वर्षों में भले ही कुछ गतिविधियां बढ़ाई हों, लेकिन इन गतिविधियां से हलचल तो हुई, लेकिन जनता वोटों में तब्दील नहीं हो सकी। सच यह है कि वर्ष 1998 से आज तक कांग्रेस शहर में एक भी विधायक नहीं जिता पाई। नगर निगम में 30 साल में एक बार भी अपना बोर्ड न बना पाना और 2014 से लोकसभा चुनावों में बढ़ते वोट अंतर से हार मिलना—यह सब पार्टी की जमीनी कमजोरी का ही प्रमाण है।

ऐसे हालात में फतह सिंह राठौड़ को दोबारा मौका भरोसा जताया है। राठौड़ संगठन में जान डालने की कोशिश करते रहे, लेकिन परिणाम अपेक्षाकृत नहीं रहे। अब पार्टी का यह भरोसा कितना कारगर होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वे आंतरिक विरोध, गुटबाजी और बीजेपी की मजबूत चुनावी मशीनरी से कैसे लड़ पाते हैं। शहर कांग्रेस कमेटी की दिखाई देने वाली एकजुटता भी सतही है—दरअसल कांग्रेस के बड़े नेताओं की अपनी-अपनी अलग लाइन, अलग प्राथमिकताएं और अलग राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं।

उधर, देहात कांग्रेस में रघुवीर मीणा की नियुक्ति भी सवालों से घिरी है। लगातार तीन चुनाव हार चुके नेता को जिलाध्यक्ष बनाकर क्या कांग्रेस वास्तविक पुनर्निर्माण की दिशा में कदम उठा रही है या सिर्फ राजनीतिक समीकरण साध रही है? कार्यकर्ताओं व जनता से मीणा की बढ़ती दूरी किसी से छिपी नहीं। पहले गहलोत और अब पायलट के निकट होने का लाभ संगठनात्मक काम में कितना बदल पाएगा, यह बड़ा प्रश्न है। यह पद वास्तव में उनकी सियासत को पुनर्जीवित करेगा या सिर्फ एक “सलामत विकल्प” भर साबित होगा—यह देखने की बात है।

मेवाड़ में कांग्रेस का लगातार गिरता वर्चस्व दोनों जिलाध्यक्षों के सामने सबसे कठिन चुनौती है। पार्टी ने जिन्हें दोबारा मौका दिया है और जिन पर नई जिम्मेदारी सौंपी है—क्या वे संगठन को वास्तव में जमीन पर उतार पाएंगे या यह नियुक्तियां भी कांग्रेस की पुरानी समस्याओं को जस का तस जारी रखेंगी?

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