
विश्लेषणात्मक आलोचना | उदयपुर
उदयपुर ज़िले के खेरवाड़ा क्षेत्र के लराठी गांव में एक दर्दनाक घटना हुई—तीन मासूम भाई-बहन सोम नदी में डूब गए। यह केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं है, बल्कि हमारे उस विकास मॉडल का आईना है जो घोषणाओं में तो पुल बना देता है, लेकिन ज़मीन पर ज़िंदगियां डूबने देता है।
रविवार की शाम 6 बजे, निरमा (15), खुशबू (12) और कल्पेश (10) मीणा अपनी भैंस को ढूंढते हुए सोम नदी तक पहुंचे। नदी पार दूसरी तरफ भैंस को देखकर तीनों मासूम बहते पानी में उतर गए—फिर कभी लौटे नहीं। अगली सुबह उनके शव नदी से निकाले गए।
कहने को ये एक ‘दुर्घटना’ थी, लेकिन सच पूछिए तो यह व्यवस्था की हत्या थी।
एक पुल जो नहीं बना, तीन ज़िंदगियां जो चली गईं
ग्रामीणों का कहना है कि इस नदी पर पुल की माँग सालों से हो रही है। एक पुल है तो सही, लेकिन वह 2 किलोमीटर दूर है, और पैदल चलने वाले गरीब ग्रामीणों के लिए यह दूरी भारी पड़ती है। नदी पार करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है—कभी मवेशियों के साथ, कभी खेतों के लिए, कभी बच्चों की ज़िंदगी की कीमत पर।
सरपंच लालूराम की बात में पीड़ा है—“कई बार प्रशासन से पुल बनाने की गुहार लगाई, पर हर बार आश्वासन मिला, काम नहीं।” हर चुनाव में नेता आते हैं, पुल, सड़क, स्कूल और स्वास्थ्य की बात करते हैं, लेकिन जाते वक्त वादे भी ले जाते हैं।
विकास का असंतुलित झांसा
देशभर में स्मार्ट सिटी, एक्सप्रेसवे और बुलेट ट्रेन के पोस्टर लगते हैं, लेकिन लराठी जैसे गांवों में एक पुल भी नसीब नहीं। ऐसा लगता है जैसे विकास का नक्शा सिर्फ महानगरों तक सीमित है। गाँवों के लिए सिर्फ जुमले हैं—’नया भारत’, ‘विकसित भारत’, ‘सबका साथ, सबका विकास’। लेकिन जब एक भैंस के पीछे तीन बच्चे डूब जाते हैं तो उस विकास की असलियत दिखती है।
क्या यही है वह भारत जो विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है? जहाँ डिजिटल इंडिया की बात तो होती है, लेकिन लोगों को अब भी नदी पार करने के लिए ट्यूब का सहारा लेना पड़ता है?
क्या जान की कोई कीमत नहीं?
कल्पेश अभी छठी क्लास में था, खुशबू सातवीं में और निरमा दसवीं की छात्रा थी। उनके सपनों की किताबें अब बंद हो गईं, स्कूल का रास्ता अब नदी के पार नहीं, श्मशान तक रह गया। क्या इन बच्चों की जान की कोई कीमत नहीं?
प्रशासन का काम अब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और मुआवज़ा तय करना है। मीडिया दो दिन कवरेज देगा, फिर नई ख़बर ढूंढेगा। लेकिन उस पिता दिनेश मीणा का क्या, जिसकी तीन संतानें एक साथ चली गईं? क्या उसका दर्द उस पुल की नीं पर नहीं टिकता, जो कभी बना ही नहीं?
गाँवों को ‘विकास’ नहीं, ‘दिखावा’ मिला है
गाँवों की दशा देखकर लगता है कि ‘विकास’ अब एक राजनीतिक स्लोगन बन गया है—जो सिर्फ चुनावी पोस्टरों पर जीवित है। लराठी जैसे सैकड़ों गांव देश के नक्शे पर तो हैं, पर योजनाओं के दस्तावेज़ों में नहीं।
पंचायतों की अपीलें, सरपंचों के पत्र, ग्रामीणों की कोशिशें—all fall on deaf ears. और जब बच्चों की लाशें नदी से निकाली जाती हैं, तब प्रशासन ‘दुःख व्यक्त’ करने पहुंचता है, समाधान देने नहीं।
समस्या: सिस्टम की संवेदनहीनता, समाधान: वादों से आगे की नीति
इस त्रासदी का समाधान कोई रॉकेट साइंस नहीं है—यह एक साधारण पुल है। लेकिन दुर्भाग्य से, हमारे सिस्टम के लिए एक पुल बनाना उतना भी आसान नहीं, जितना चुनावी वादा करना।
सरकार को चाहिए कि वह शोक व्यक्त करने के बजाए अपनी प्राथमिकताएं बदले। योजनाओं में गांवों को सिर्फ ‘लाभार्थी’ नहीं, ‘नागरिक’ माना जाए। नदी पर पुल न होना सिर्फ एक इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी नहीं, बल्कि राज्य की ज़िम्मेदारी का पतन है।
समाप्ति नहीं, शुरुआत होनी चाहिए
निरमा, खुशबू और कल्पेश अब कभी स्कूल नहीं जाएंगे, लेकिन उनका नाम इस बात की पुकार बनना चाहिए कि “अब और नहीं।” अब किसी गांव को पुल की गुहार लगानी न पड़े, अब किसी पिता को अपने बच्चों की लाशें खोजनी न पड़ें।
यह घटना एक समाचार नहीं, एक सबक है। और अगर इसे सिर्फ एक “हादसा” मान लिया गया, तो अगली बार यह हादसा किसी और के घर दस्तक देगा।
क्योंकि जब तक गाँवों में पुल नहीं बनते, बच्चे डूबते रहेंगे… और विकास सिर्फ पोस्टर में जिंदा रहेगा।
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