क्या उदयपुर में मुस्लिम लीडरशिप का बेड़ा गर्क हो चुका है?


सैयद हबीब, उदयपुर। उदयपुर की सियासत में मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी तादाद के बावजूद मुस्लिम लीडरशिप का ज़वाल एक बड़ा सवाल है। कांग्रेस जैसी पार्टी, जिसने एक वक्त पर मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी मज़बूत पकड़ बनाई थी, आज वहां प्रभावी मुस्लिम नेतृत्व से महरूम नज़र आती है। इसकी वजह सियासी गुटबाज़ी, आपसी नाइत्तेफाकी और स्वार्थ की राजनीति है, जिसने किसी भी मुस्लिम नेता को मजबूत बनने नहीं दिया।


तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया के दौर में कुछ प्रभावी मुस्लिम नेता ज़रूर उभरकर आए थे। ये नेता ज्यादातर कांग्रेस के लिए मुस्लिम इलाकों में वोट जुटाने तक सीमित थे। उनकी भूमिका मुख्य रूप से अस्पताल, थाने और कचहरी में छोटे-मोटे काम करवाने और वक्फ बोर्ड की कमेटियों में शामिल होने तक ही थी। हालांकि, उनकी कौम में एक हद तक इज़्ज़त थी, मगर सियासी पायदान पर उनका कद कभी बढ़ा नहीं।


स्व. मोहनलाल सुखाड़िया के बाद डॉ. गिरिजा व्यास ने मुस्लिम लीडरशिप को आगे बढ़ाने की कोशिश की। इन नेताओं की पहुंच मोहल्लों से निकलकर जिले और राज्य तक पहुंची। लेकिन आपसी गुटबाज़ी और निजी स्वार्थ ने मुस्लिम लीडरों की रफ्तार रोक दी। पार्षदों के चुनाव में भले ही कांग्रेस समर्थित मुस्लिम उम्मीदवार जीतते रहे, मगर वे स्थानीय राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके।


साल 2003 में जब गुलाबचंद कटारिया ने मुस्लिम लीडरशिप पर काम शुरू किया, तो पहली बार बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने वक्फ बोर्ड और कमेटियों में जगह बनानी शुरू की। कुछ मुस्लिम क्षेत्रों से बीजेपी के पार्षद भी चुने गए। मगर 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कथित विरोध और अल्पसंख्यक समुदाय में असहमति के चलते यह प्रयास भी ठंडा पड़ गया।

कांग्रेस की हार और मुस्लिम लीडरशिप का पतन:
पिछले 20 सालों में उदयपुर शहर विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को एक के बाद एक हार का सामना करना पड़ा। इसके चलते कांग्रेस की मुस्लिम लीडरशिप भी कमजोर पड़ती गई। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस से जुड़े मुस्लिम युवा नेताओं का प्रभाव लगभग शून्य है।


मुस्लिम लीडरों में मुद्दों पर संघर्ष का अभाव स्पष्ट है। बीते तीन दशकों में ऐसा कोई नेता नहीं हुआ, जिसने कौम या समाज के लिए अपनी भूमिका को ईमानदारी से निभाया हो। कोरोनाकाल जैसी आपदा में भी किसी नेता ने सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। इसके उलट, मसल्स पावर का इस्तेमाल कर अपने ही समुदाय के लोगों को दबाने का चलन बढ़ता गया।


उदयपुर में मुस्लिम लीडरशिप को पुनर्जीवित करने के लिए सिर्फ मुस्लिमों के लिए ही नहीं, बल्कि हर कमजोर तबके की आवाज़ बनकर संघर्ष करना होगा। औपचारिकता से ऊपर उठकर ज़मीनी काम करना पड़ेगा। अगर मुस्लिम नेता किसी मसले पर खुलकर खड़े होते, जैसे कन्हैयालाल टेलर के परिवार या देवराज के लिए संघर्ष करते, तो आज उनकी सियासी हैसियत अलग होती।

नफरत के ख़िलाफ़ मोहब्बत की सियासत :


सियासत को फिर से दिशा देने के लिए मोहम्मद साहब के उस पैगाम पर चलना होगा, जो इंसानियत और मोहब्बत की बुनियाद पर खड़ा है। नफरत को हराने का एक ही तरीका है—उनसे मोहब्बत करना जो आपसे नफरत करते हैं। अगर मुस्लिम नेता सच्चे दिल से इस दिशा में कदम बढ़ाएं, तो यकीनन सियासत में उनका खोया हुआ मुकाम वापस लाया जा सकता है।

एडिटर कॉमेंट
उदयपुर की मुस्लिम लीडरशिप का पतन केवल कौम के लिए नहीं, बल्कि सियासी तंत्र के लिए भी एक चेतावनी है। जब तक मुद्दों पर संघर्ष, मोहब्बत की सियासत और सच्चाई की बुनियाद पर काम नहीं होगा, मुस्लिम लीडरों का सियासी वजूद खतरे में ही रहेगा।

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