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सूरजपोल चौराहा…एक राजनीतिक अतीत की यादें

फोटो : कमल कुमावत

उदयपुर का सूरजपोल चौराहा, जो कभी शहर का दिल हुआ करता था, आज सुनसान सा हो चुका है। वह चौराहा जहां राजनीतिक दिग्गज एक साथ जुटते थे, जहां हर दिन राजनीति और समाज के हर पहलू पर गंभीर चर्चा होती थी, आज वह जगह खामोशी में खो गई है। सूरजपोल की गलियों में जब भी कदम पड़े थे, तो कभी न कभी किसी सियासी शख्सियत का सामना हो जाता था। ये वो दौर था जब मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया जैसे नेता भी इस चौराहे से गुजरते थे और जिनसे मिलने के लिए लोग घंटों इंतजार करते थे।

यहां का माहौल ही कुछ अलग था। सड़क के किनारे स्थित राज मिष्ठान के सामने राजनीति के दिग्गजों का जमावड़ा लग जाता था। यही वह स्थान था, जहां न केवल चुनावी रणनीतियों पर चर्चा होती थी, बल्कि यहां के छोटे-मोटे व्यवसायियों, छात्रों, और आम नागरिकों को भी अपने जीवन को बेहतर बनाने के नए विचार मिलते थे। सूरजपोल के चौराहे पर आने वालों के लिए यह एक प्रकार का स्कूल था, जहां राजनीति, समाज, और दुनिया की बेहतरी के लिए लगातार विचारों का आदान-प्रदान होता था।

प्रो. विजय श्रीमाली, अनिल सिंघल, युधिष्ठिर कुमावत जैसे नेता इस चौराहे पर नियमित रूप से आते थे। उनका एक ऐसा नेटवर्क था, जिससे सूरजपोल मित्र मंडल का गठन हुआ था। यह मंडल न केवल राजनीतिक विमर्श का केंद्र था, बल्कि शहर के युवा नेताओं के लिए भी प्रेरणा का स्रोत था। छात्रसंघ चुनाव हो या आम चुनाव, हर मोड़ पर यहां चुनावी चर्चाओं का आगाज होता था। लोगों के बीच राजनीतिक ज्ञान का आदान-प्रदान इस चौराहे को एक अद्भुत मंच बना देता था, जहां चुनावी रणनीतियों से लेकर समाज के बुनियादी मुद्दों तक पर खुलकर बात होती थी।

लेकिन आज, इस जगह की रौनक फीकी हो गई है। जो जगह कभी विचारों का आदान-प्रदान करती थी, वह अब सुनसान सी हो गई है। समय के साथ सूरजपोल का यह जोशीला माहौल भी बदल गया है। आजकल राजनीति के चर्चे सोशल मीडिया पर होते हैं, जहां चर्चा की एक अलग ही दिशा है। यहां विश्वास की कमी है, और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना भी लुप्त हो गई है। सवाल यह उठता है कि क्या सूरजपोल की वह महान राजनीतिक परंपरा और जोश फिर से लौटेगा, या यह महज एक याद बनकर रह जाएगा?

यह सवाल अब केवल सूरजपोल तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे शहर के हर हिस्से पर लागू होता है। क्या हम अपने अतीत की संजीवनी को वापस ला पाएंगे, जहां बहसें और विचार व्यक्तित्व को गढ़ने में सहायक बनते थे? या फिर हमें राजनीति की इस नई दुनिया को उसी रूप में अपनाना होगा, जो अब सोशल मीडिया की उथली सतहों पर सिमट कर रह गई है? समय ही बताएगा।

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