
पुणे/मुंबई। भारत के प्रतिष्ठित खगोल भौतिक विज्ञानी और विज्ञान लेखक डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर का 87 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। 19 मई की रात उन्होंने पुणे स्थित अपने निवास पर नींद में अंतिम सांस ली। उनके पारिवारिक सूत्रों और निजी सचिव ने यह जानकारी साझा की। डॉ. नार्लीकर के निधन से भारतीय वैज्ञानिक समुदाय और विज्ञान प्रेमियों के बीच गहरा शोक व्याप्त है।
डॉ. जयंत नार्लीकर का नाम भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में वैज्ञानिक चिंतन और खगोल भौतिकी के क्षेत्र में एक मजबूत स्तंभ के रूप में जाना जाता है। वे केवल एक वैज्ञानिक नहीं थे, बल्कि विज्ञान को आमजन तक सरल और रोचक भाषा में पहुंचाने वाले भारत के अग्रणी साइंस कम्युनिकेटर भी थे। उनके लेख, भाषण, और विज्ञान कथाओं ने असंख्य छात्रों को प्रेरित किया और विज्ञान को ‘डर’ की बजाय ‘जिज्ञासा’ का विषय बनाया।
जीवन परिचय और प्रारंभिक शिक्षा
डॉ. नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता विष्णु वासुदेव नार्लीकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में गणित के प्रोफेसर थे और भारत में सापेक्षता सिद्धांत के शुरुआती शिक्षकों में से एक माने जाते थे। उनकी माता सुमति नार्लीकर संस्कृत की विदुषी थीं। इस प्रकार डॉ. नार्लीकर को एक बौद्धिक और शैक्षणिक वातावरण बचपन से ही मिला।
अपनी स्कूली शिक्षा वाराणसी में पूरी करने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (University of Cambridge) गए। वहाँ उन्होंने विख्यात खगोलशास्त्री फ्रेड होयल के साथ काम किया और ब्रह्मांड की संरचना व गुरुत्वाकर्षण पर गहन शोध किया। यहीं पर दोनों वैज्ञानिकों ने मिलकर “होयल-नार्लीकर थ्योरी ऑफ ग्रैविटी” का प्रतिपादन किया, जो आज भी ब्रह्मांड विज्ञान की बहसों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
️ वैज्ञानिक करियर और उपलब्धियाँ
1972 में डॉ. नार्लीकर भारत लौटे और उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में खगोल भौतिकी विभाग की कमान संभाली। वहाँ उन्होंने विज्ञान अनुसंधान को नई दिशा दी।
1988 में उन्हें इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (IUCAA) का संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया, जो आज भारत का प्रमुख खगोल विज्ञान शोध संस्थान है। इस संस्थान की नींव उनके विजन और नेतृत्व पर टिकी रही।
डॉ. नार्लीकर का शोध क्षेत्र अत्यंत विस्तृत था—कोस्मोलॉजी (ब्रह्मांड विज्ञान), थ्योरी ऑफ ग्रैविटी, क्वांटम फील्ड थ्योरी और अंतरिक्ष के मौलिक प्रश्नों पर उन्होंने शोध पत्र और पुस्तकें लिखीं। उनकी सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि होयल-नार्लीकर सिद्धांत रही, जो ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसकी संरचना को समझने के लिए एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है।
️ विज्ञान का जनसंवाद: ‘साइंस कम्युनिकेटर’ की भूमिका
डॉ. नार्लीकर का मानना था कि विज्ञान को समाज से अलग-थलग नहीं रखा जाना चाहिए। वे अकसर कहा करते थे—“अगर हम बच्चों को विज्ञान से जोड़ना चाहते हैं, तो विज्ञान की भाषा को सरल बनाना ही होगा।” इसी सोच के तहत उन्होंने हिंदी, मराठी और अंग्रेजी में अनेक विज्ञान आधारित किताबें और लेख लिखे, जिन्हें स्कूली बच्चों से लेकर वयस्क पाठकों तक ने पढ़ा और सराहा।
उनकी विज्ञान कथाओं और काल्पनिक विज्ञान साहित्य (science fiction) को भी विशेष ख्याति मिली। वे ‘गंभीर वैज्ञानिक’ और ‘रचनात्मक लेखक’ दोनों ही भूमिकाएं एक साथ निभाते थे। उनकी पुस्तकें ‘भविष्य की दुनिया’, ‘ब्लैक होल’, ‘काले सूरज के नीचे’ जैसी रचनाएं आज भी युवा विज्ञान प्रेमियों की पसंदीदा सूची में शामिल हैं।
सम्मान और पुरस्कार
डॉ. जयंत नार्लीकर को उनके कार्यों के लिए भारत सरकार ने कई उच्च सम्मानों से सम्मानित किया:
• पद्म भूषण (1965)
• पद्म विभूषण (2004)
• महाराष्ट्र भूषण (2010) – यह पुरस्कार उन्हें महाराष्ट्र सरकार ने विज्ञान संचार के क्षेत्र में योगदान के लिए दिया।
इसके अलावा उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक वैज्ञानिक संस्थाओं की मानद सदस्यता प्राप्त थी। वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे।
️ निधन पर श्रद्धांजलियाँ
उनके निधन की सूचना मिलते ही देशभर से वैज्ञानिकों, शिक्षकों और छात्रों ने गहरा दुख जताया। प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी बयान में कहा गया,
“डॉ. जयंत नार्लीकर भारत के उन दुर्लभ वैज्ञानिकों में से थे जिन्होंने विज्ञान को अनुसंधान प्रयोगशालाओं से निकालकर स्कूलों और किताबों तक पहुंचाया। उनका निधन एक युग का अंत है।”
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी ट्वीट कर श्रद्धांजलि दी:
“डॉ. नार्लीकर एक प्रेरणा थे। उन्होंने विज्ञान को आम लोगों की भाषा में लाकर जो काम किया, वह अतुलनीय है।”
विरासत: जो शेष रहेगा
डॉ. जयंत नार्लीकर भले अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी लेखनी, उनकी किताबें, और उनका सैद्धांतिक योगदान आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। उनकी कोशिश थी कि भारत के बच्चे वैज्ञानिक सोच से युक्त बनें और ब्रह्मांड को जानने की जिज्ञासा रखें। उनकी यह सोच आज भी जीवित है और आने वाले वर्षों तक जीवित रहेगी।
अंतिम संस्कार 20 मई को पुणे में परिवार और करीबियों की उपस्थिति में संपन्न हुआ। वे अपने पीछे पत्नी, तीन बेटियाँ और एक समृद्ध वैज्ञानिक विरासत छोड़ गए हैं।
नमन उस महान वैज्ञानिक को, जिसने हमें सितारों तक सोचने की हिम्मत दी।
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