
लोकतंत्र, असहमति और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संघर्ष
हरियाणा। 6 मई 2025 को अली ख़ान महमूदाबाद—जाने-माने शिक्षाविद, इतिहासकार और लेखनी से भारतीय लोकतंत्र की परतों को उघाड़ने वाले एक मुखर आलोचक—को उत्तर प्रदेश पुलिस ने लखनऊ स्थित उनके घर से गिरफ़्तार किया। उन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत गंभीर आरोप लगाए गए, जिनमें देशद्रोह, धार्मिक उन्माद फैलाना और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुँचाना शामिल है।
इस गिरफ़्तारी ने पूरे देश में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर गहन बहस छेड़ दी है, क्योंकि प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद न सिर्फ़ लखनऊ के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों से जुड़े रहे हैं, बल्कि येल, कैम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड जैसे वैश्विक विश्वविद्यालयों में भी भारत की विविधता, मुस्लिम पहचान और लोकतंत्र पर व्याख्यान दे चुके हैं।
गिरफ़्तारी के पीछे की वजह: एक फेसबुक पोस्ट?
बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रोफ़ेसर महमूदाबाद की गिरफ्तारी की वजह बनी उनकी एक फेसबुक पोस्ट, जिसमें उन्होंने भारत-पाक तनाव के संदर्भ में कथित रूप से सरकार की “युद्धोन्माद वाली भाषा” की आलोचना की थी और मारे गए आम नागरिकों के प्रति संवेदना प्रकट की थी।
उन्होंने लिखा था:
“एक राष्ट्र की शक्ति उसकी मानवीयता में होती है, न कि मिसाइलों की गिनती में। जब तक हम युद्ध को महिमामंडित करते रहेंगे, तब तक शांति केवल एक भाषण का विषय बनी रहेगी।”
सरकार के समर्थकों ने इसे “भारत विरोधी” बताया, वहीं उनके छात्रों, सहकर्मियों और नागरिक अधिकार संगठनों ने इस पर “लोकतंत्र के खिलाफ एक खुला हमला” करार दिया।
चार्जशीट और कानूनी पेंच
प्रोफ़ेसर महमूदाबाद पर निम्न धाराएँ लगाई गई हैं:
• आईपीसी धारा 124ए (देशद्रोह): सरकार के खिलाफ “घृणा और असंतोष” को बढ़ावा देने का आरोप।
• आईपीसी धारा 153ए: धार्मिक और भाषायी आधार पर वैमनस्य फैलाने का आरोप।
• आईटी अधिनियम की धारा 66ए (जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले ही असंवैधानिक घोषित हो चुकी है): इलेक्ट्रॉनिक संचार के ज़रिए “आपत्तिजनक सामग्री” फैलाने का आरोप।
कई वकीलों ने ध्यान दिलाया है कि धारा 66ए का उल्लेख करना खुद में गैरकानूनी है, क्योंकि यह 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार केस में खारिज की जा चुकी है।
सामाजिक प्रतिक्रिया: दो ध्रुवों में बंटा देश
गिरफ़्तारी के कुछ ही घंटों में #IStandWithAliKhan ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। जेएनयू, जामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय और टिस जैसे संस्थानों में छात्रों ने मौन जुलूस निकाले। मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब ने कहा:
“अगर एक प्रोफ़ेसर को नागरिकों की हत्या पर दुख प्रकट करने के लिए जेल भेजा जाता है, तो समझिए कि हम लोकतंत्र नहीं, भयतंत्र में जी रहे हैं।”
दूसरी तरफ़ राष्ट्रवादी तबकों ने इस गिरफ़्तारी को “जरूरी कार्रवाई” बताया। एक टीवी डिबेट में एक सांसद ने कहा:
“अगर कोई इस वक़्त राष्ट्र के खिलाफ लिखता है, जब हमारे सैनिक सीमा पर शहीद हो रहे हैं, तो यह सहन नहीं किया जाएगा।”
क्या देशद्रोह की धारा प्रासंगिक है?
देशद्रोह कानून को अंग्रेज़ों ने 1870 में भारतीय दमन के लिए लागू किया था। महात्मा गांधी, तिलक, भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानी इसी कानून के तहत जेल गए। आज़ादी के बाद भी यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ मानी जाती रही है।
विनोद दुआ केस (2021) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि सरकार की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता जब तक कि उसमें हिंसा की स्पष्ट उकसावन न हो।
प्रोफ़ेसर महमूदाबाद की पोस्ट में हिंसा या उकसावन जैसा कोई तत्व नहीं था, सिर्फ़ एक भावनात्मक और वैचारिक असहमति थी। ऐसे में उनकी गिरफ्तारी संविधान की मूल आत्मा पर सीधा आघात प्रतीत होती है।
अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला?
भारतीय विश्वविद्यालयों में हाल के वर्षों में आलोचक प्रोफेसरों, लेखकों और पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई आम होती जा रही है:
• 2016: जेएनयू के कन्हैया कुमार को “देशविरोधी नारे” के आरोप में गिरफ़्तार किया गया।
• 2018: पुणे के प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुंबड़े पर भीमा कोरेगाँव मामले में कार्रवाई हुई।
• 2023: डीयू के प्रोफ़ेसर जो “हिंदुत्व और इतिहास” पर काम कर रहे थे, उन्हें “देशद्रोही साहित्य” के हवाले से निलंबित किया गया।
प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ्तारी इस लंबी कड़ी की अगली कड़ी लगती है। यह एक चेतावनी है कि भारत में अकादमिक क्षेत्र भी अब “राजनीतिक शुद्धता” की तलवार से बचा नहीं रह गया है।
राजनीतिक प्रतिक्रिया: चुप्पी या चतुराई?
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने बयान जारी करते हुए कहा:
“यह गिरफ्तारी भारत की लोकतांत्रिक आत्मा पर धब्बा है। महमूदाबाद जैसे विद्वानों की चुप्पी, आने वाली पीढ़ियों की अंधी गुलामी होगी।”
हालाँकि, कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता इस मुद्दे पर चुप रहे। क्षेत्रीय दल जैसे कि TMC, RJD और AAP ने अधिक मुखर प्रतिक्रिया दी, लेकिन राष्ट्रीय विमर्श में यह मामला अन्य राजनीतिक घटनाओं की चकाचौंध में कहीं खो गया।
मुस्लिम पहचान और देशभक्ति पर सवाल?
प्रोफ़ेसर महमूदाबाद की गिरफ़्तारी इस धारणा को भी मज़बूत करती है कि मुसलमानों की देशभक्ति को बार-बार साबित करने की आवश्यकता क्यों समझी जाती है।
महमूदाबाद ख़ानदान का इतिहास देशभक्ति से भरा पड़ा है। उनके पिता, मोहम्मद अली ख़ान, भारत सरकार में मंत्री रह चुके हैं। उनके दादा मुस्लिम लीग में रहते हुए भी भारत में रह गए थे।
इसके बावजूद आज, एक प्रोफ़ेसर की राष्ट्रीयता पर इसलिए सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि उन्होंने युद्ध नहीं, शांति की बात की।
अंतरराष्ट्रीय नजरिया : भारत की छवि को झटका
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस गिरफ्तारी को भारत में “सिंकिंग डेमोक्रेसी” का उदाहरण बताया जा रहा है।
• The Guardian ने लिखा: “In Modi’s India, dissent is the new crime.”
• New York Times ने इस घटना को “Academic Censorship” बताया।
• Al Jazeera ने इसे “Islamophobia masked as Nationalism” कहा।
यह भारत की वैश्विक छवि के लिए सकारात्मक संकेत नहीं है, खासकर जब वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की कोशिश कर रहा है।
कौन तय करेगा देशभक्ति की परिभाषा?
प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ्तारी यह सवाल उठाती है कि आज़ाद भारत में देशभक्ति और आलोचना के बीच की रेखा कौन खींचेगा? क्या सरकार के हर कदम से असहमति देशद्रोह मानी जाएगी? क्या शिक्षा संस्थान सिर्फ़ ‘हां’ कहने वालों की पनाहगाह बनेंगे?
यह सिर्फ़ एक प्रोफ़ेसर की गिरफ़्तारी नहीं है, यह भारत के लोकतांत्रिक अस्तित्व की अग्निपरीक्षा है।
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