
जहां न अस्पताल है, न मशीनें… पर हर जनवरी उम्मीदें लौट आती हैं
उदयपुर। कभी-कभी सेवा इतनी मौन होती है कि वह प्रचार के शोर से परे जाकर इतिहास बन जाती है। उदयपुर के सर्जन डॉ. जेके छापरवाल और उनके साथियों की कहानी ऐसी ही है — 45 वर्षों से एक संन्यासी के आग्रह पर वे हर साल उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के घने जंगलों में स्थित हडियाकोल आश्रम में जाते हैं… न अख़बार को खबर देते हैं, न सोशल मीडिया पर तस्वीर डालते हैं। बस जाते हैं, ऑपरेशन करते हैं, दवाएं बांटते हैं, घाव भरते हैं — और लौट आते हैं।
यह लेख किसी सम्मान पत्र, किसी पुरस्कार या किसी सरकारी रिपोर्ट का अंश नहीं है — यह उस निर्वाक सेवा की गाथा है, जिसे सिर्फ़ वही देख सकते हैं, जो ज़मीन पर दर्द महसूस कर सकते हैं।
शुरुआत : जब संत ने कहा — ‘वहां कोई डॉक्टर नहीं है’
वर्ष 1979 की एक शाम उदयपुर के ओसवाल भवन में दो संत — रामदास महाराज और रामज्ञान दास महाराज — प्रवचन के बाद कुछ डॉक्टरों से बोले:
“उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक आश्रम है — श्रीराम वन कुटीर। वहाँ के आसपास सैकड़ों गांव हैं, लेकिन डॉक्टर नहीं हैं। लोग बीमार होते हैं, पर मरना स्वीकार कर लेते हैं।”
उनकी आंखों में आंसू थे। डॉक्टरों की आंखें भी नम थीं।
उस रात उदयपुर के कुछ वरिष्ठ चिकित्सकों ने तय किया — “हम जाएंगे। सेवा करेंगे। मुफ्त में, अपने खर्चे पर।”
और फिर शुरू हुआ एक ऐसा सिलसिला जो आज 45 साल बाद भी नहीं टूटा।
रेल से बस, बस से जंगल… और फिर ऑपरेशन थियेटर
शुरुआती सालों में डॉक्टरों की टीम रेल से उदयपुर से दिल्ली, फिर गंगा-जमना एक्सप्रेस से लखनऊ, फिर बस से बाराबंकी, और फिर कच्चे-पथरीले रास्तों से जंगल के भीतर 7 किमी पैदल चलकर आश्रम पहुंचती थी।
ना लाइट, ना पानी, ना ऑपरेशन थियेटर।
तंबू, लालटेन और जमीन पर बिछी चादरों पर ऑपरेशन हुए।
फिर धीरे-धीरे वहां एक ऑपरेशन थियेटर बना, दवाओं की व्यवस्था हुई, आसपास के लोग सेवाभावी होकर जुड़ने लगे।
हर जनवरी… जंगल में उतरती है एक छोटी-सी ‘आशा की सेना’
हर साल जनवरी में, जब उत्तर भारत की ठंड अपने चरम पर होती है, तब डॉ. छापरवाल और उनकी टीम वहां पहुंचते हैं।
उनके पास कोई तामझाम नहीं होता — बस बैग में सर्जिकल किट, टॉर्च और दवाएं।
लेकिन जब वे पहुंचते हैं, तो गांव-ढाणियों से भीड़ उमड़ पड़ती है — लोग अपनी मर्ज़ी से नहीं, मजबूरी से लाए जाते हैं।
“कई माएं अपने बच्चों को चारपाई पर बांधकर लाती हैं, कई बुज़ुर्गों को ठेले पर बैठाकर 50 किमी दूर से पैदल चलते हैं। उन्हें उम्मीद होती है — डॉक्टर बाबू आएंगे, इलाज करेंगे।“
— एक स्थानीय शिक्षक
ये सिर्फ इलाज नहीं, एक सामाजिक दस्तावेज़ है
इस शिविर का सबसे बड़ा मूल्य यही है कि यह सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की असफलताओं का मौन दस्तावेज है।
जहां जिला अस्पताल नहीं पहुंच पाता, वहां एक डॉक्टर 1000 किलोमीटर दूर से खुद चलकर आता है।
भारत का ग्रामीण और आदिवासी समाज आज भी चिकित्सकीय असमानता से ग्रस्त है।
डॉ. छापरवाल जैसे डॉक्टर केवल ‘इलाज’ नहीं करते — वे सरकारों को आईना दिखाते हैं कि
“जहां तुम नहीं पहुंच सके, वहां हम इंसानियत के रास्ते से पहुंचे।”
डॉक्टर, वैद्य और नर्स — तीन स्तंभों वाली एक मानवीय व्यवस्था
इस शिविर में केवल आधुनिक सर्जन ही नहीं आते — आयुर्वेदाचार्य, क्षार सूत्र विशेषज्ञ, होम्योपैथ और फार्मासिस्ट भी आते हैं।
राजसमंद के कुरज गांव से हर साल नर्सिंग स्टाफ आता है, जो मरीजों की सेवा में दिन-रात लगा रहता है।
सभी डॉक्टर अपने रहने, खाने, दवाएं और साधन स्वेच्छा से अपने या दानदाताओं के सहयोग से लाते हैं।
सांख्यिकी नहीं, संवेदना की भाषा में बात करें तो…
• अब तक लाखों मरीज
• 45 वर्षों में हज़ारों ऑपरेशन
• 30 से ज्यादा जिलों से हर साल मरीज
• कोई फीस नहीं, कोई फोटो नहीं, कोई प्रचार नहीं
•
• जिन्होंने शुरुआत की, वे अब नहीं रहे — पर सेवा चल रही है
शुरुआत करने वाले डॉक्टरों में से कई अब इस दुनिया में नहीं हैं —
डॉ. आरके अग्रवाल, डॉ. एपी गट्टानी, डॉ. एसबी गुप्ता जैसे नाम अब बस यादों में हैं।
लेकिन उनकी प्रेरणा जीवित है — अब गंगापुर, जयपुर, भिवंडी, कोलकाता से डॉक्टर आने लगे हैं।
सेवा अब वंशानुगत बन चुकी है — जैसे योग या संगीत की परंपरा।
यह कोई NGO नहीं, यह सेवा का मौन महायज्ञ है
सरकारी नीतियों और CSR योजनाओं के दौर में, यह शिविर किसी भी कॉर्पोरेट फंडिंग या पब्लिसिटी से दूर है।
यह सेवा है — जो सिर्फ़ कर्तव्य से नहीं, करुणा से जन्मी है।
डॉक्टरों ने बताया —“हम वहां सिर्फ़ ऑपरेशन नहीं करते, हम वहां जाकर इंसानियत का बोझ हल्का करते हैं।”
यह डॉक्टर नहीं, जीवन के पुजारी हैं
1 जुलाई को जब देशभर में डॉक्टरों को सम्मानित किया जाता है, तब डॉ. जेके छापरवाल जैसे लोग ‘सम्मान’ नहीं, सिर्फ़ स्मरण के पात्र हैं।
उनके पास कोई अवॉर्ड नहीं, लेकिन हजारों ग्रामीणों की आंखों में आभार है।
और शायद यही सबसे बड़ा पदक है —जिसे कोई सरकार नहीं देती, जिसे कोई संस्था माप नहीं सकती,
और जो केवल एक सर्जन और एक संत के बीच हुए मौन संवाद से जन्मा था।
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