सैयद हबीब, उदयपुर
उदयपुर जो अपनी झीलों, ऐतिहासिक धरोहरों और सामाजिक सौहार्द के लिए जाना जाता है, हाल ही में एक छोटी-सी घटना से अचानक अशांत हो उठा। नींबू के मोल भाव को लेकर सब्जी विक्रेता से हुआ एक मामूली विवाद देखते ही देखते सामाजिक तनाव का कारण बन गया। यह विवाद केवल दो व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामुदायिक पहचान के चश्मे से देखा जाने लगा, और कुछ लोगों ने इसमें आग में घी डालने का काम किया।
शहर का दिल कहे जाने वाले धानमंडी क्षेत्र और उसके आस-पास के बाजारों में भय और अनिश्चितता का माहौल पैदा हो गया। रोजमर्रा की कमाई पर निर्भर छोटे दुकानदारों के चेहरों पर चिंता साफ झलक रही थी। प्रशासन और पुलिस ने तुरंत कार्रवाई करते हुए आरोपियों को गिरफ़्तार किया और हालात पर नियंत्रण पाने की कोशिश की, लेकिन यह सवाल फिर भी बना रहा — क्या हमारी सामाजिक संरचना इतनी नाजुक हो गई है कि दो व्यक्तियों की बहस भी शहर की रफ्तार रोक सकती है?
इस घटना का संदर्भ केवल स्थानीय नहीं है। यह देश में उस व्यापक मानसिकता को भी उजागर करता है, जो किसी भी टकराव को समुदाय, धर्म या राजनीति की दृष्टि से देखने लगती है। जबकि इसी समय देशभर में ‘तिरंगा यात्रा’ के जरिए सेना के सम्मान और राष्ट्रीय एकता का संदेश दिया जा रहा है। युद्ध जैसे तनावपूर्ण माहौल में भी भारत ने जिस प्रकार एकजुटता और परिपक्वता दिखाई है, वह केवल हमारे लोकतंत्र की ताकत ही नहीं, बल्कि सामाजिक समझदारी की भी मिसाल है।
इस परिप्रेक्ष्य में असदुद्दीन ओवैसी का बयान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कट्टरपंथ के आरोपों से घिरे नेता ने जिस स्पष्टता से पाकिस्तान और आतंकवाद का विरोध किया, उसने कई लोगों की सोच को चुनौती दी है। यह बदलाव दर्शाता है कि राष्ट्रीय हितों के मुद्दे पर राजनीतिक सीमाएं भी धुंधली पड़ सकती हैं, और यही एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है।
जहां एक ओर देश वैश्विक मंच पर अपनी संप्रभुता की रक्षा में गंभीर कदम उठा रहा है — जैसे आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ सख्त रुख और सीमित स्तर पर सीजफायर की स्वीकार्यता — वहीं दूसरी ओर हमारे शहर, हमारे मोहल्ले, हमारी गलियां आपसी समझ और संवाद के अभाव में नाजुक मोड़ पर खड़ी हैं।
उदयपुर की घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि सामाजिक सौहार्द केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक की जवाबदेही है। प्रशासनिक कार्रवाई जरूरी है, लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है लोगों के बीच संवाद, समझदारी और सहिष्णुता की भावना।
अर्थव्यवस्था की नब्ज दुकानों और बाजारों से चलती है। एक दिन का भी व्यवधान छोटे दुकानदार के लिए हानि का कारण बनता है, जो किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक तनाव से अधिक बड़ा नुकसान होता है। वह दुकानदार जो अपने ठेले पर बैठा सुबह से शाम केवल इस इंतज़ार में बैठा है कि हालात सामान्य हों, वह विकास की मूल इकाई है।
शांति और स्थिरता ही राष्ट्र की प्रगति की नींव हैं। सवाल उठाना लोकतंत्र का हिस्सा है, और सरकार की नीतियों की आलोचना भी आवश्यक है। लेकिन जब सवालों का तरीका शांति को नुकसान पहुंचाने लगे, तो आत्मनिरीक्षण आवश्यक हो जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सीमापार सीजफायर पर सहमति इसी दिशा में एक रणनीतिक और व्यावहारिक कदम माना जाना चाहिए — एक ऐसा फैसला जो सेना की कार्यक्षमता बनाए रखते हुए कूटनीतिक चैनल्स को खुला रखता है।
जो लोग बिना ज़मीन देखे सीजफायर का विरोध करते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि देश की आंतरिक शांति और बाहरी सुरक्षा के बीच संतुलन साधना ही सबसे बड़ी कूटनीति है। पड़ोसी से झगड़ा हो जाने पर जब तक समझौता न हो, चैन से नींद नहीं आती — यही स्थिति देशों के बीच भी लागू होती है।
अंततः, उदयपुर की घटना यह सबक देती है कि राष्ट्र की एकता केवल सीमाओं पर नहीं, समाज के भीतर भी बनती है। एक गलती, एक अफवाह, एक उत्तेजक बयान — ये सब मिलकर वर्षों की मेहनत पर पानी फेर सकते हैं। इसलिए ज़रूरत है कि हम सभी संयम रखें, सोशल मीडिया की भ्रामक सूचनाओं से सावधान रहें और अपने-अपने स्तर पर सौहार्द का वातावरण बनाए रखने में सहयोग दें।
यह समय भारत के हर नागरिक के लिए आत्ममंथन का है — क्या हम अपने मोहल्ले में शांति बनाए रख सकते हैं, ताकि देश भी स्थिरता की ओर बढ़े?
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