देव साहब… नाम लेते ही जैसे पर्दे पर चलती फिल्म की रील रुक जाती है, और एक मुस्कराहट चेहरे पर ठहर जाती है। वो चाल, वो बात, वो जज़्बा… मानो खुद ज़िंदगी ने कोट पहन लिया हो और कैमरे के सामने पोज़ दे दिया हो। आइए, अब आपको सुनाते हैं खुद देवानंद की ज़िंदगी की फिल्म — ‘रोमांसिंग विद लाइफ़’ — फिल्मी अंदाज़ में, देवानंद के ही लहज़े में:
“मैं धरम देव पिशोरीमल आनंद… मगर आप मुझे देव साहब कहिए”
अरे जनाब, मेरा नाम धरम देव पिशोरीमल आनंद था, लेकिन नाम तो बस एक पहचान होती है, असली जादू तो उस मुस्कान में होता है जो परदे पर चमकती है। पंजाब के गुरदासपुर ज़िले में पैदा हुआ था — अविभाजित भारत में। घर था वकीलों का, लेकिन दिल… दिल तो साहब परदे पर धड़कने के लिए मचलता था।
लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा। शेक्सपियर और शैली को पढ़ा, मगर मन में बस एक ही ख्वाब पल रहा था — सपनों का शहर, मायानगरी मुंबई।
“सिर्फ 160 रुपये की नौकरी, मगर आंखों में करोड़ों ख्वाब”
मुंबई आया तो जेब में ज्यादा कुछ नहीं था, पर उम्मीदें… वो आसमान से बड़ी थीं। चर्चगेट में एक मिलिट्री सेंसर ऑफिस में 160 रुपये की नौकरी की, मगर मन तो कैमरे के सामने दौड़ रहा था।
और फिर… एक दिन, जैसे फिल्मी सीन होता है — अशोक कुमार साहब ने मुझे देखा और ‘ज़िद्दी’ फिल्म में हीरो बना डाला। कामिनी कौशल के साथ परदे पर कदम रखा, और लोग कहने लगे — “ये लड़का कुछ अलग है…”।
“नवकेतन की नींव और बाज़ी का पासा”
1949 में सोचा, क्यों न खुद की कंपनी हो? बस, नवकेतन फिल्म्स की शुरुआत हुई। और जनाब, जो पहली बड़ी बाज़ी लगाई, वो फिल्म ही ‘बाज़ी’ थी। गुरु दत्त को निर्देशक बनाया, साहिर ने गीत दिए और मैंने लोगों के दिलों पर दस्तक दी।
“तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले…” — ये गाना नहीं, मेरी ज़िंदगी की कहानी बन गया।
“स्टाइल नहीं छोड़ी, चाहे टोपी हो या मोहब्बत”
मेरा स्टाइल? वो कोई एक्टिंग स्कूल नहीं सिखा सकता। सिर हिलाने की अदा, हर दूसरी फिल्म में अलग टोपी — “ऐ मेरी टोपी पलट के आ देख…” — लोग दीवाने हो जाते थे।
राज कपूर और दिलीप कुमार भी साथ थे, पर मेरी चाल कुछ और ही थी। मैं ‘मुनीमजी’, ‘सीआईडी’, ‘पेइंग गेस्ट’ में वो बना जो हर नौजवान बनना चाहता था — ‘एवरग्रीन हीरो’।
“प्यार… नाव पलटी, दिल नहीं”
अब जरा इश्क की बात हो जाए? सुरैया… नाम तो सुना होगा? छह फिल्में कीं साथ। एक बार शूटिंग में नाव पलटी, मैंने उन्हें बचाया। और वहीं… दिल भी डूब गया, इश्क में।
मगर मोहब्बत भी तब की थी, जब मज़हब दीवार बन जाता था। सुरैया की दादी नहीं मानीं, और मोहब्बत अधूरी रह गई। वो ताउम्र कुंवारी रहीं, और मैं… यादों का मुसाफिर बन गया।
“गाइड — जब किताब से फिल्म बनी, और देव से राही”
‘गाइड’… जनाब, ये फिल्म नहीं, फीलिंग थी। आर.के. नारायण की किताब से निकला राही, वहीदा रहमान के साथ मिलकर ऐसी अदाकारी की, जिसे वक्त सलाम करता है। हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में शूट की गई — एक Indo-US Collaboration जो तब के ज़माने में सपना लगता था।
“ज्वेल थीफ से जॉनी तक — हिट्स का ख़ज़ाना”
विजय आनंद के साथ ‘ज्वेल थीफ’ बनाया, और फिर आया ‘जॉनी मेरा नाम’। 1970 में जब बाकी स्टार्स उम्र का तकाज़ा मान कर साइड हो रहे थे, मैं रोमांस का झंडा थामे परदे पर इश्क फरमा रहा था।
“हरे रामा हरे कृष्णा — हिप्पी कल्चर और हिट मूवी”
1971 में निर्देशन किया ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ — जीनत अमान को लॉन्च किया। हिप्पी कल्चर पर आधारित यह फिल्म, आज भी ‘दम मारो दम’ के सुरों में धड़कती है।
“देस परदेस और फिर ढलती परछाइयां”
1978 में ‘देस परदेस’ आई — टीना मुनीम के साथ। हिट हुई, लेकिन फिर वक्त बदलने लगा। 80s और 90s में फिल्में चली नहीं, पर देव साहब… कभी रुकते नहीं थे, साहब।
2005 में आख़िरी बार ‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’ में पर्दे पर आया। लोग कहने लगे — “देव अब बूढ़े हो गए हैं”, लेकिन मैं कहता था — “बूढ़ा होता है जिस्म, ख्वाब नहीं”।
“गाने… जो हर दिल में धड़कते हैं”
मेरी फिल्मों के गाने… वो सिर्फ गीत नहीं थे, जनाब, दिल के तार थे।
शंकर-जयकिशन, ओपी नैयर, सचिन दा, आर.डी. बर्मन… और गले में रफ़ी, किशोर, मुकेश की आवाज़ें —
“ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत…”, “गाता रहे मेरा दिल…”, “फूलों के रंग से…” — ये सब आज भी ज़िंदा हैं।
“सिनेमा से आगे… सियासत तक”
सिर्फ परदे तक सीमित नहीं था देव साहब। जब इमरजेंसी लगी, मैं चुप नहीं रहा। सिनेमा के लोगों को साथ लिया और आवाज़ उठाई।
मेरी फिल्मों में हमेशा समाज की बात थी, प्यार की नहीं, जिम्मेदारी की भी।
“रोमांसिंग विद लाइफ — मेरी आत्मकथा, मेरा सिनेमा”
2007 में मेरी आत्मकथा आई — “Romancing With Life”। उसे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लॉन्च किया।
क्योंकि साहब, मैंने जिंदगी को सिर्फ जिया नहीं, उससे मोहब्बत की…
हर फ्रेम में, हर डायलॉग में, हर मुस्कान में।
“देव साहब — The Evergreen Enigma”
100 से ज्यादा फिल्में, 30 से ज्यादा प्रोडक्शन, 20 से ज्यादा डायरेक्शन, और 10 से ज्यादा स्क्रिप्ट… पर असली कामयाबी ये नहीं थी।
असली कामयाबी थी — एक स्टाइल, एक रवानी, एक देवानंद।
“मैं गया नहीं, साहब… बस परदे से पीछे चला गया। पर्दा गिरा नहीं है, बस थोड़ा और रोशनी चाहिए…”
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