“एक जिंदादिल पर्दा गिर गया : दलपत सुराना नहीं रहे…”

सैयद हबीब, उदयपुर

सिनेमा में जब आख़िरी दृश्य आता है, तो परदे पर “द एंड” नहीं, एक लंबा सन्नाटा उतरता है—ठीक वैसा ही सन्नाटा उदयपुर की फिज़ाओं में छाया है, क्योंकि उस मंच से एक किरदार उतर गया है, जिसने मंच को सिर्फ़ राजनीति का मंच नहीं, जनभावनाओं का रंगमंच बना दिया था। दलपत सुराना अब हमारे बीच नहीं हैं। पर उनकी आवाज़, उनकी हंसी, उनका आत्मविश्वास अभी भी शहर की सड़कों पर, पार्टी कार्यालय की दीवारों पर और फतहसागर की लहरों में गूंजता रहेगा।

फिल्मों में कुछ किरदार होते हैं जो कभी नायक नहीं कहलाते, फिर भी पूरी कहानी उन्हीं के आसपास घूमती है—दलपत सुराना भी राजनीति के ऐसे ही चरित्र थे। वे न विधायक बने, न सांसद, न मंत्री, पर जनमानस के दिलों में उनकी लोकप्रियता किसी सितारे की तरह जगमगाती रही।

उनकी ज़िंदगी का सबसे मजबूत संवाद था—”सच को सच और गलत को गलत कहना है, चाहे जो भी हो”।
ये डायलॉग नहीं था, जीने का तरीका था। ऐसे समय में जब सत्ता का सत्य अक्सर मुखौटों के पीछे छुपा होता है, सुराना जैसे लोग खुद को खुली किताब की तरह रखते थे। वे राजनीति की उस पीढ़ी के थे, जहां मतभेद हो सकते थे, पर मनभेद नहीं।

एक ज़माना था जब लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें नाम से जानते थे—ये वाक्य सिर्फ़ गौरव नहीं, उस संबंध की बानगी है जो किसी स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक जीवन का क्लाइमैक्स था। भैरोंसिंह शेखावत के साथ उनका आत्मीय रिश्ता वैसा ही था, जैसे राज कपूर और मुकेश का—अलग अलग विधाएं, पर आत्मा एक।

राजनीति में उनका प्रवेश कोई दृश्य नहीं था, बल्कि एक टेकिंग थी, जहां कैमरा सीधे भीड़ पर फोकस करता है और उसमें एक चेहरा, एक मुस्कान, एक जोश अलग से चमकता है। 1989 में जब उन्होंने पांच हज़ार लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की, तो वह किसी चुनावी लॉलीपॉप का हिस्सा नहीं था, बल्कि सेवा की उस परंपरा की झलक थी, जो राजस्थान की माटी में आज भी किसी हल्दीघाटी की गूंज की तरह बसी हुई है।

शहर के विकास में उनकी भूमिका को अक्सर अखबारों ने एक लाइन में समेट दिया, लेकिन रानी रोड पर लगे स्कल्पचर उनके दृष्टिकोण के गवाह हैं। जब पर्यटन और सौंदर्यशास्त्र को किसी राजनेता की सोच में जगह मिलती है, तो वो व्यक्ति नेता से ज़्यादा—एक दृष्टा हो जाता है।

आज जब हज़ारों पर्यटक उन मूर्तियों के सामने तस्वीरें खिंचवाते हैं, शायद ही कोई जानता हो कि उस फ़्रेम के पीछे सुराना की कल्पना है। वो जानते थे कि विकास सिर्फ इमारतें खड़ी करने से नहीं होता, संस्कृति की रचना करने से होता है।

वे गुलाबचंद कटारिया के निकट थे और विरोध में भी डटे रहते थे—यह रिश्ता राजनीति की उस पटकथा की तरह है, जहां विरोध कोई खलनायकी नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सजग संवाद होता है।

दलपत सुराना पार्टी के लिए वैसे ही थे, जैसे किसी फिल्म में प्रोड्यूसर—परदे के पीछे रहकर पूरी स्क्रिप्ट को अर्थ देते हुए। उन्होंने भाजपा को आर्थिक रूप से संबल दिया उस दौर में, जब पार्टी सिर्फ़ विचार थी, सत्ता नहीं।

दैनिक भास्कर के चेयरमैन स्व. रमेशचंद्र अग्रवाल के साथ उनका रिश्ता व्यवसायिक नहीं, भावनात्मक था। जब भी अग्रवाल जी उदयपुर आते, हवाई अड्डे से पहला फोन उन्हें करते थे—यह रिश्ता ठीक वैसा था जैसे प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन का—जहां दोस्ती की भाषा कम शब्दों में भी पूरी कहानी कह देती है।

जयन्ती हो या कोई आम सभा, उनकी मौजूदगी किसी कैमियो की तरह नहीं, बल्कि एक मूक संवाद की तरह होती थी—जहां चेहरा बोलता है और व्यक्तित्व मंत्रमुग्ध करता है।

उनके मित्र, सहयोगी, पूर्व पार्षद, युवा मोर्चा के साथी जब याद करते हैं, तो स्मृतियों की रील चलने लगती है—दिल्ली, अयोध्या, कारसेवा… ये सब अब इतिहास की घटनाएं नहीं, एक पुरानी फिल्म की दृश्यावलियां हैं, जिनमें सुराना की मुस्कान बार-बार लौट आती है।

जीवन के इस मंच पर सुराना ने अपने संवाद पूरे कर लिए हैं। परदे की आखिरी सलवट अब गिर गई है। लेकिन जैसे हर महान फिल्म के अंतिम दृश्य के बाद भी दर्शक हॉल से तुरंत बाहर नहीं जाता, वैसे ही उदयपुर भी उन्हें इतनी जल्दी विदा नहीं कर पाएगा।

क्योंकि दलपत सुराना केवल नेता नहीं थे—वे अपने समय के अद्भुत चरित्र अभिनेता थे, जो जनता के दिलों की गैलरी में हमेशा खड़े रहेंगे—बिना तालियों के इंतज़ार में…

ॐ शांति।

यहां देखिए दलपत सुराना की तस्वीरें

ोटो : कमल कुमावत

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