
उदयपुर की सरज़मीं पर क्रिकेट का जुनून किसी से छिपा नहीं है। यहां के मैदानों पर रोज़ाना दर्जनों बच्चे बैट-बॉल लेकर दौड़ते हैं, गेंद फेंकते हैं, चौके-छक्के मारते हैं और सपनों की उड़ान भरते हैं। लेकिन इन सपनों की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि ज़्यादातर बच्चे बाउंड्री के बाहर ही रह जाते हैं। कारण सीधा है—उनके पास न तो अकादमी की मोटी फ़ीस भरने की ताक़त होती है और न ही राजनीतिक रसूख।
क्रिकेट हमेशा से टैलेंट का खेल माना गया है। जो खिलाड़ी गली-कूचों से निकलकर मेहनत करता है, वही बड़े मंच तक पहुँचता है। लेकिन उदयपुर की कहानी कुछ और है। यहां टैलेंट को रास्ता मिलता ही नहीं, क्योंकि सिस्टम पर कब्ज़ा राजनीति और सत्ता का है।
उदयपुर ने राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई खिलाड़ियों को दिया है। अशोक मेनारिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। उन्होंने अपने खेल से उदयपुर का नाम रोशन किया। लेकिन अफसोस, पिछले पंद्रह सालों से कोई भी खिलाड़ी उस स्तर तक नहीं पहुँच पाया। सवाल यह उठता है कि क्या उदयपुर में टैलेंट खत्म हो गया? बिल्कुल नहीं। यहां टैलेंट है, जज़्बा है, मेहनत है, लेकिन जिस सिस्टम से होकर गुज़रना होता है, वह टैलेंट को दबा देता है।
क्रिकेट की दुनिया में अक्सर कहा जाता है कि मैदान में खिलाड़ी जितना संघर्ष करता है, उतना ही संघर्ष उसे बाहर के मैदान में भी करना पड़ता है। उदयपुर के खिलाड़ी आजकल मैदान से ज़्यादा राजनीति से जूझ रहे हैं।
उदयपुर जिला क्रिकेट संघ यानी UDA का नाम सुनते ही लोग क्रिकेट की संस्था समझते हैं, लेकिन असल में यह नेताओं और गुटबाज़ी का अड्डा बन चुका है। जल्द ही यहां चुनाव होने वाले हैं। लेकिन चुनाव को लेकर खिलाड़ियों या खेल की चर्चा नहीं है, बल्कि नेताओं और पदाधिकारियों की चालें ही सुर्खियों में हैं।
इस संघ में कुल 38 क्लब हैं। चुनावों में इन क्लबों के सचिव हिस्सा लेते हैं। सुनने में यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया लगती है, लेकिन हकीकत यह है कि क्लब चुनिंदा लोगों के कब्ज़े में हैं। क्लबों के सचिव महज़ मोहरे होते हैं। असली खेल महलों और नेताओं के घरों में तय होता है।
यहां सवाल यह उठता है कि अगर चुनाव में खिलाड़ी सीधे तौर पर शामिल ही नहीं होंगे, तो क्या यह संघ वास्तव में खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व करता है?
क्लबों का ढांचा और धांधली
जिला क्रिकेट संघ ने क्लबों को ए, बी और सी तीन ग्रुप में बाँटा हुआ है। यह व्यवस्था इस तरह बनाई गई थी कि हर साल सी ग्रुप की अंतिम दो टीमें बाहर हो जाएँ और नए क्लबों की टीमों को जगह मिले। सुनने में यह व्यवस्था बिल्कुल न्यायपूर्ण लगती है, क्योंकि इससे नए क्लबों और खिलाड़ियों को सिस्टम में घुसने का अवसर मिलता है।
लेकिन पुराने क्लबों ने मिलजुलकर इस व्यवस्था को ही खत्म कर दिया। यानी क्वालिफाइंग मैच बंद करवा दिए गए। नतीजा यह हुआ कि पुराने क्लब बाहर होने से बच गए और नए क्लबों के लिए रास्ता पूरी तरह बंद हो गया। यह साफ दिखाता है कि मौजूदा पदाधिकारी और क्लब अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।
दरअसल, यह व्यवस्था खुद खिलाड़ियों और टैलेंट के खिलाफ है। अगर क्वालिफाइंग मैच ही नहीं होंगे, तो नए क्लब कैसे आएंगे और नए खिलाड़ी कैसे मौका पाएंगे? यही कारण है कि उदयपुर में क्रिकेट का भविष्य राजनीति के हाथों बंधक बना हुआ है।
ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा
उदयपुर क्रिकेट संघ की एक और बड़ी खामी है—ग्रामीण क्षेत्रों की अनदेखी। संघ के ज़्यादातर क्लब और टीमें शहरों तक ही सीमित हैं। ग्रामीण इलाकों का कोई प्रतिनिधित्व यहां नहीं है।
क्रिकेट का टैलेंट सिर्फ़ शहरों में नहीं होता, बल्कि गाँवों में भी बच्चे क्रिकेट को जीते हैं। लेकिन जब संघ में ग्रामीण क्लब ही शामिल नहीं होंगे, तो उन बच्चों को मंच कैसे मिलेगा? यहां अकादमियाँ और क्लब शिकारवाड़ी और फील्ड क्लब जैसे पॉश इलाकों तक सीमित हैं। इस व्यवस्था से साफ है कि क्रिकेट अब खेल से ज़्यादा एक “एलिट क्लब” बन चुका है, जिसमें ग़रीब या ग्रामीण तबके के खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं।
नेतृत्व की विफलता
राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के उच्च पदों पर उदयपुर के महेंद्र शर्मा जैसे लोग रहे हैं। उनसे उम्मीद थी कि वे अपने शहर और उसके खिलाड़ियों के लिए काम करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। स्थानीय स्तर पर खिलाड़ियों की शिकायत है कि उन्होंने कभी नीचे तबके के खिलाड़ियों को उठाने की कोशिश नहीं की। शहर के क्रिकेट पदाधिकारी तक से बात करना मुश्किल है, फोन उठाना तो दूर की बात है।
यह रवैया साफ दिखाता है कि नेतृत्व खिलाड़ियों के लिए नहीं, बल्कि अपने पद और सत्ता के लिए काम करता है।
राजनीति की दलदल में फंसा क्रिकेट
उदयपुर का क्रिकेट संघ राजनीति की दलदल में गहराई तक धँस चुका है। संघ के चुनाव से लेकर टीमों के चयन तक हर जगह राजनीति का बोलबाला है। यह स्थिति केवल उदयपुर की नहीं, बल्कि राजस्थान के कई जिलों में यही हाल है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि उदयपुर में यह गुटबाज़ी टैलेंट को पूरी तरह रोक चुकी है।
खिलाड़ी मेहनत करते हैं, नेट पर पसीना बहाते हैं, लेकिन चयन की अंतिम प्रक्रिया में राजनीति और संपर्क भारी पड़ जाते हैं। यह खेल को नहीं, बल्कि सपनों को मारता है।
आलोचना और सही कदम
अगर आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो उदयपुर क्रिकेट संघ की प्रमुख खामियाँ और समस्याएँ ये हैं—
पहला, संघ पर नेताओं और गुटबाज़ों का कब्ज़ा है, खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व नाममात्र है।
दूसरा, क्लबों की व्यवस्था ऐसे बनाई गई है कि नए क्लबों और खिलाड़ियों को कभी मौका ही न मिले।
तीसरा, ग्रामीण क्षेत्रों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि वहां टैलेंट की भरमार है।
चौथा, नेतृत्व और पदाधिकारी अपनी कुर्सी बचाने और अपनी “दुकानदारी” चलाने में लगे हैं।
पाँचवा, संघ खिलाड़ियों से संवाद तक नहीं करता, उनकी समस्याएँ तो दूर की बात है।
अब सवाल यह है कि सुधार कैसे होगा?
सही कदम ये हो सकते हैं—
सबसे पहले क्वालिफाइंग मैचों की व्यवस्था फिर से शुरू की जाए। यह नए क्लबों और खिलाड़ियों के लिए रास्ता खोलेगा।
जिला क्रिकेट संघ में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए। कम से कम 30 प्रतिशत क्लब ग्रामीण इलाकों से हों।
क्रिकेट संघ की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण बने, ताकि राजनीतिक दखल को रोका जा सके।
अकादमियों और क्लबों की फीस संरचना ऐसी बने कि आर्थिक रूप से कमजोर खिलाड़ी भी शामिल हो सकें।
नेताओं और पदाधिकारियों की बजाय खिलाड़ियों और पूर्व क्रिकेटरों को संघ की जिम्मेदारी मिले।
सबसे अहम बात, खिलाड़ियों के चयन और अवसर की प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष हो।
उदयपुर का क्रिकेट आज एक बड़े मोड़ पर खड़ा है। एक ओर बाउंड्री के बाहर बैठे बच्चे हैं, जिनकी आँखों में सपने हैं। दूसरी ओर नेता और पदाधिकारी हैं, जिनकी नज़र सिर्फ़ सत्ता और पद पर है।
अगर सिस्टम ऐसे ही चलता रहा तो उदयपुर से नए अशोक मेनारिया कभी सामने नहीं आएँगे। लेकिन अगर राजनीतिक दखल कम कर खिलाड़ियों को असली मंच दिया जाए, तो उदयपुर फिर से राज्य और देश को बड़े खिलाड़ी दे सकता है।
क्रिकेट का खेल हमेशा से संघर्ष, मेहनत और टैलेंट का खेल रहा है। उदयपुर को भी उसी दिशा में लौटाना होगा। खिलाड़ियों को क्रिकेट संघों की राजनीति से आज़ाद करना होगा। तभी बाउंड्री के बाहर बैठे बच्चों के सपने बाउंड्री के भीतर चौके-छक्कों में बदल पाएंगे।
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