संस्कृतिकर्मी विलास जानवे की कलम से
शिल्पग्राम देहाती संस्कृति का परिचायक और पोषक रहा है। यहाँ के शिल्पदर्शन मेले में साल भर शिल्पकार अपनी दस्तकारी का प्रदर्शन करते और यहाँ आने वाले लोगों को अपने शिल्प का प्रदर्शन करते और हाथों से बनी कलाकृतियाँ वाजिब दाम पर बेचते दूसरे शब्दों में यह शिल्पकारों की कर्म भूमि रहा है। इसी प्रकार लोक और जनजातीय कलाकारों के दल मौलिक मनोरंजन के साथ आंचलिक संस्कृति के दर्शन कराते। शहर की भीड़भाड़ से दूर उदयपुर का शिल्पग्राम देशी और विदेशी पर्यटकों और संस्कृति प्रेमियों की पसंदीदा सुकून वाली जगह है। शिल्पग्राम को बनाने और परिष्कृत करने में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की संस्थापक निदेशक अदिति मेहता का बड़ा योगदान रहा। शिल्पग्राम की इस परम्परा को उनके बाद के निदेशकों ने निभाया है। सांस्कृतिक केंद्र के कर्मठ अधिकारियों तथा कर्मचारियों की मेहनत साफ़ झलकती है।
बीते 34 वर्षों ने शिल्पग्राम के वार्षिक पर्व शिल्पग्राम उत्सव ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर अपनी ख़ास पहचान बनाई | शिल्पग्राम उत्सव से वर्षों के आत्मिक जुड़ाव ने मुझे ये गीत लिखने की प्रेरणा मिली,जिसे कई शिल्पग्राम उत्सव के दौरान खूब गाया भी। गीत है …
पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र का सुन्दर शिल्पग्राम
कलाकारों और शिल्पकारों का ये है तीरथ धाम
शिल्पग्राम उत्सव में आप खुशियाँ मनाएंगे
सांस्कृतिक विरासत से रिश्ता बनाएंगे
बांधे जो सब को एक सूत्र में करे ये नेक काम
ऐसे पवित्र शिल्पग्राम का आपको सलाम
अरे पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण सभी दिशा से आये हैं
अपने हाथों बनाये गए उम्दा शिल्प लाये हैं
अरे देखो इनकी कला शिल्प को
और दोस्ती इनसे बढाओ रे
अपने और अपनों के लिए
शिल्प खरीद ले जाओ रे
हे हे .. हे हे ..यहाँ शीतल पवन है
स्वादिष्ट व्यंजन है ..मनोरंजन और शिक्षण है
इस उत्सव को सफल बनाने की
इच्छा हर एक के मन में है …
इतने वर्षों से पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की टीम के अथक प्रयास ने इस उत्सव को जमाया और नवाचार के साथ लोकप्रिय बनाया। उदयपुर और आसपास के क्षेत्र के लोग साल भर से इस उत्सव का इंतज़ार करते और लाइन में लग टिकट खरीद कर उत्सव का आनंद लेते। मुझे याद आते हैं स्वर्गीय अपूर्व भट्टाचार्य जिनको शिल्पग्राम उत्सव का कार्ड भी भेजा जाता फिर भी वह टिकट खरीद कर उत्सव देखने आते। पूछने पर जवाब देते कि “उदयपुर की इस विरासत के प्रति हमारा भी तो फ़र्ज़ है। यह समझलो कि इस यज्ञ में हमारी भी आहुति है”।
शिल्पग्राम के इस नैसर्गिक वातावरण में यह उत्सव उत्साह ,उमंग और खु शी का संचार करता। विभिन्न थडों पर लोक कलाकारों से संगीत को सुनते और उनके साथ गुनगुनाते उनके नृत्य को देखकर झूमते और मौक़ा देखकर नाचते भी। अपनी विरासत को करीब से देखने वाले लोग फूले नहीं समाते। यह भूमिका फालतू में नहीं बनाई है ..आगे पढिये …
शिल्पग्राम उत्सव का फोकस लोक और जनजातीय कलाओं पर होता। सच में लोगों को केवल और केवल शिल्पग्राम में ही खालिस ( विशुद्ध ) लोक कलाएं देखने को मिलती हैं । अन्य शहरी मेलों में लोक कलाकारों की पूछ होती ही कहाँ है ? इतने वर्षों के प्रयत्नों से शिल्पग्राम ने यह प्रतिष्ठा बना ही ली थी कि “ शुद्ध और मौलिक लोक कला का स्थान बोले तो –शिल्पग्राम”
सांस्कृतिक केंद्र के वार्षिक कार्यक्रमों में सभी प्रकार के कलाविधाओं (जैसे नाटक,शास्त्रीय संगीत नृत्य आदि ) को जोड़ा जाता है। ऋतू वसन्त और मल्हार शास्त्रीय संगीत और नृत्यों पर आधारित होते हैं , शरद पर्व में तो कंटेम्पररी आर्ट्स को भी मौका मिलता रहा है।
शिल्पग्राम उत्सव में खासकर जनजातीय और पारम्परिक लोक कलाओं को प्रदर्शित किया जाता रहा है जिसका लोग साल भर से इंतज़ार करते हैं, लेकिन इस बार तो शिल्पग्राम उत्सव में लोक कलाकार दलों की अपेक्षा शास्त्रीय नृत्यों, स्टार कलाकारों और सूफी प्रस्तुतियों पर बहुत ही ज़्यादा बल दिया गया। इस बात से कई लोक कला दल वंचित रह गए, उन्हें अवसर ही नहीं मिल पाया, दूसरी ओर लोक कलाओं के कद्रदान लोक कलाओं के देखने के लिए तरस ही गए। हालांकि जो भी दल आये उनमें से कुछ दल तो स्तरहीन थे। उत्सव के शुभारम्भ वाले और अगले दिन( मात्र दो दिन ) लगभग 300 लोक और जनजातीय कलाकारों को एक साथ मंच पर पेश किया गया। बिना किसी परिचय के प्रस्तुत इन नृत्यों को देख दर्शकों को यह पता नहीं चल पाया कि कौन सा दल कहाँ का है और कौनसा नृत्य कर रहा है। अगले दिन मंच पर लगी विशाल एल ई डी स्क्रीन पर नृत्यों के नाम ज़रूर प्रकट हुए ,लेकिन दोनों दिन इन नृत्यों को बहुत कम समय मिला। लोग उस नृत्य में रस लेवें उससे पहले की दूसरे कलाकार बीच में आ जाते, अर्थात न कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मिला न ही दर्शक उसका पूरा आनंद उठा पाए।
“शिल्प ग्राम का यह मंच केवल मनोरंजन का ही स्थान नहीं है ,ये स्थान हमारी समृद्ध देशज सांस्कृतिक विरासत को जानने और उस पर गर्व करने का स्थान है” यह वाक्य इस उत्सव के लिए एकदम फिट बैठा करता ,लेकिन इस बार नहीं।
शिल्पग्राम उत्सव में कुछ दिनों इक्की दुक्की लोक कलाओं को जोड़ा गया किन्तु अधिक जोर स्टार कलाकारों पर दिया गया । एक पुराने कलाकार ने दुःख से बताया लोक कलाकारों का मानदेय पिछले दस वर्षों से बिलकुल बढाया नहीं गया और इन स्टार कलाकारों का भुगतान लाखों में होता है।
कला और संस्कृति से जुड़े संजीदा लोगों से जब बात हुई तो मुझे लगा कि मेरे दुःख में ये विद्वजन भी सहभागी हैं |
वरिष्ठ पेंटर और कलाविद डाक्टर रघुनाथ शर्मा ने बताया “
ऐसे प्रयास कलाओं की हर विधा में हुए हैं। यह बात जिम्मेदार आयोजन कर्ताओं को हर बार सोचना चाहिए कि इन कार्यक्रमों का असली मकसद क्या है ?
अधिकांश जिम्मेदार लोगों की आजकल एक मानसिकता बन गई है, वह है बिना जरूरत भव्यता की। बिना विचार विमर्श के कुछ करीबी लोगों को फायदा पहुंचाने के निमित हर क्षेत्र की हर कला विधा में सेंध मारी जाती है और लोक व परंपरागत कलाओं के उद्धार की आड़ में एक बड़ी राशि जो खर्च की जाती है, वह अपव्यय ही साबित होती है। …… धीरे धीरे यह एक परिपाटी बन जाती है और आम दर्शक व सीधे सरल लोक कलाकारों की आस,रुचि, इच्छा गौण बनकर रह जाती है।
हम लोग तो अफ़सोस ही कर सकते हैं या एक दूसरे से अपना दर्द बयां करते फिरें।
फ्यूजन है या कंफ्यूजन समझ में नहीं आता।”
वरिष्ठ चित्रकार प्रोफ़ेसर हेमंत द्विवेदी ने केवल एक शब्द में टिपण्णी की –“सांसकृत्रिम केंद्र ”.
वरिष्ठ रंगकर्मी दिलीप नायक का मानना है “वार्षिक शिल्पग्राम उत्सव में सभी लोक कलाओं को इनके पारंपरिक मूल रुप में ही प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित है।
लोक कलाओं में फ्यूजन का प्रयोग मेरे लिए नई और आश्चर्यजनक बात है। ऐसा जारी रहने पर इस महत्वपूर्ण आयोजन के प्रति उदयपुर और अनेक स्थानों से आकर इस आयोजन को देखनेवालों का उत्साह भंग होगा साथ ही मुख्य बात कि लोक कलाकार भी हतोस्ताहित होंगे।
आयोजकों को प्रति वर्ष इस आयोजन में भाग लेनेवाले कलाकारों और इसे देखने आनेवालों से फीडबैक लेने की शुरुआत करनी चाहिए और उनके द्वारा सुझाए गए सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर आवश्यक परिवर्तन किए जाने चाहिएं।”
वरिष्ठ पर्यावरण प्रेमी, इन्टाक के निर्मित विरासत समन्वयक और फोटोग्राफर प्रो. महेश शर्मा ने बताया कि “वर्ष 1985 – 87 के दौरान देश में 7 सांस्कृतिक केंद्रों का गठन भारतीय पारंपरिक सांस्कृतिक स्रोतों, संस्कृति एवं विरासत के संरक्षण, विस्तार एवं विकास करने के लिए किया गया था ।
इसी उद्देश्य से उदयपुर में भी श्रीमती अदिति मेहता के नेतृत्व में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र का गठन किया गया था । उदघाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा किया गया था । तब यह कहा गया था कि संस्कृति का संवहन पारंपरिक समाज के माध्यम से होता है। शिल्पग्राम उत्सव शुरू करने के लिए कला, संस्कृति एवं विरासतविदों की लंबी मेहनत थी, जिसका उद्देश्य लोककला , लोक संगीत तथा लोक नृत्य क्षेत्र के उन कलाकारों, शिल्पकारों को सामने लाना,तथा उन्हे वित्तीय एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना था जिन्हें आधुनिकता की दौड़ में हाशिए पर धकेल दिया था। आज भी यह मेला पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के कर्मचारियों तथा अधिकारियों के वर्षों की मेहनत का परिणाम है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर ऊंच नीच का भेद मिटा कर आम आदिवासी एवं गरीब लोगों को संस्कृति से रूबरू कराने के लिए शहर से नि:शुल्क बसें चलाई गई थी। किंतु आज अपनी संस्कृति से रूबरू होने से समाज के सबसे निचले तबके, गरीब तथा आदिवासियों को महरूम कर दिया गया है। उनके लिए 55 रुपए प्रति व्यक्ति एक दिन का टिकट ले कर परिवार को अपनी संस्कृति से रूबरू करवाना असंभव है । केंद्र द्वारा स्कूल के बच्चों को निशुल्क प्रवेश की व्यवस्था करनी चाहिए।
पूर्व में इसी उत्सव में लोक कला मर्मज्ञ स्व. कोमल कोठारी साहब से चर्चा के दौरान उन्होंने लोक संस्कृति के वाणिज्यीकरण पर चिंता जाहिर की थी ,उन्होंने सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने की बात पर जोर दिया था।
हमें प्रयास करने होंगे कि यह उत्सव आने वाले दिनों में केवल पर्यटकों तथा धनाढ्य वर्ग की मौज मस्ती के लिए मेघा ट्रेड फेयर बन कर नहीं रह जाए। साथ ही यह भी स्वीकारना होगा कि मशीनों से निर्मित रेडिमेड वस्त्र, उत्पाद देश की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने में सहायक नहीं है।
यह भी जरूरी है कि आधुनिक एल. ई. डी. स्क्रीन के परदे, लाइट्स तथा कानफोडू स्पीकरों की चिल्लाहट में हमारी पारंपरिक सांस्कृतिक/ आदिम विरासत की दम तोड़ती सिसकियां भी हमें सुनाई दे।”
वरिष्ठ कलाविद और इन्टाक के स्थानीय कन्वेनर प्रोफ़ेसर ललित पाण्डेय ने कहा “वर्तमान भेडचाल तो अत्यन्त हास्यास्पद हो गयी है।”
वरिष्ठ संस्कृतिविद डॉ. श्रीकृष्ण का मानना है “लोक और जनजातीय कलाकारों के लिए यह बहुत अच्छी जगह और अच्छा अवसर होता है और वे इसकी अपेक्षा भी करते हैं। यह लोकांगन बना रहे।”
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हम इतनी दूर लोक कलाकारों को देखने आते हैं, ये वेरायटी शो वाले तो दूसरे मेलों में दिख ही जाते हैंl
प्रोफ़ेसर श्रीनिवासन का मत है कि शिल्पग्राम उत्सव का आयोजन एक अर्थपूर्ण चिंतन के बाद होना चाहिए हमें सौन्दर्य बोध बढ़ाना है ना कि व्यापारवाद।”
वरिष्ठ छायाकार राकेश राजदीप का कथन है कि “मंच पर इतना बड़ा स्क्रीन लगाने की अपेक्षा अन्य खुली जगह स्क्रीन लगाएं। मंच पर एलईडी स्क्रीन से दर्शक दीर्घा में बैठे कला प्रेमियों की एकाग्रता टूटती है। मंच पर लाइट्स की चकाचौंध आँखों में चुभती है.. इस बार इक्के दुक्के कार्यक्रमों को छोड़कर न कार्यक्रमों में दम था और न ही प्रस्तुतीकरण में।”
इस उत्सव के तीन दिन शेष हैं और इसके सुधार के चांस कम लगते हैं किन्तु सुधि पाठकों और संजीदा लोगों तक यह बात सांस्कृतिक केंद्र के प्रेस नोट कभी नहीं पहुंचा पायेंगे। हम एक संस्कारवान नागरिक का कर्तव्य तो निभा ही सकते हैं जिससे शिल्पग्राम का गौरव ज़िंदा रखा जा सके। संस्कृति मंत्रालय तक उनके वेब साईट द्वारा पहुंचा जा सकता है जिसमें महिमा मंडन का स्थान सच्ची समीक्षा लेवे।
-विलास जानवे
( संस्कृति कर्मी )
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