जब एक पत्रकार, जिसने सरकार से मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी से मास्टर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री हासिल की हो और स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता का काम कर रहा हो, तब पुलिस द्वारा उसे फर्जी घोषित करना एक गंभीर और चिंताजनक स्थिति उत्पन्न करता है। इस तरह की कार्रवाई से कई सवाल उठते हैं: क्या यूनिवर्सिटी द्वारा दिए गए कोर्स और डिग्रियां फर्जी हैं, या फिर पुलिस ने अपनी कार्रवाई में पूर्वाग्रह से काम लिया है?
सबसे पहले, यह समझना जरूरी है कि यदि पत्रकार ने किसी मान्यता प्राप्त और सरकारी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी से शिक्षा ली है, तो उसकी डिग्री और उसके पत्रकारिता कौशल पर सवाल उठाना पूरी तरह से अनुचित है। ऐसी स्थिति में, यदि पुलिस किसी पत्रकार को फर्जी घोषित करती है, तो यह दो प्रमुख मुद्दों की ओर इशारा करता है। पहला, क्या उस यूनिवर्सिटी के कोर्स और डिग्रियों में कोई वास्तविक गड़बड़ी है, जो सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थान से जारी की गई हैं? और दूसरा, क्या पुलिस ने किसी व्यक्तिगत या राजनीतिक पूर्वाग्रह के आधार पर उस पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई की है?
भारतीय संविधान पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, और इस तरह की स्वतंत्रता का उल्लंघन सिर्फ प्रेस की स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं करता, बल्कि समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों को भी कमजोर करता है। अगर पुलिस बिना प्रमाण और बिना किसी ठोस आधार के पत्रकार को फर्जी घोषित करती है, तो यह ना केवल पत्रकारिता के अधिकार पर हमला है, बल्कि यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर भी सवाल उठाता है।
इसके अलावा, ऐसे मामले प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म करने की दिशा में एक खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दे सकते हैं। पुलिस द्वारा ऐसी कार्रवाई, बिना उचित जांच या सबूत के, केवल राजनीतिक दबाव, या व्यक्तिगत रंजिश का नतीजा हो सकती है, जिससे जनता के विश्वास में कमी आ सकती है।
टिप्पणी : अगर पत्रकारिता की डिग्री और पत्रकार का काम पूरी तरह से कानूनी और पेशेवर है, तो पुलिस द्वारा किसी पत्रकार को “फर्जी” घोषित करना एक गंभीर और विचारणीय मुद्दा बन जाता है। यह न केवल पत्रकार की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर हमला है, बल्कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और कानून व्यवस्था पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
“पुलिस के लिए पत्रकार को फर्जी घोषित करना: एक गंभीर उल्लंघन या कानूनी अधिकार?”
पत्रकारिता स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक समाज के स्तंभ हैं, और भारतीय संविधान इस अधिकार की रक्षा करता है। लेकिन, जब पुलिस बिना ठोस प्रमाण के किसी पत्रकार को “फर्जी” घोषित करने की कोशिश करती है, तो यह न केवल कानून की अवहेलना होती है, बल्कि लोकतंत्र की नींव को भी कमजोर करने वाली बात है।
कानूनी दृष्टिकोण से, पुलिस के लिए किसी पत्रकार को “फर्जी” घोषित करना इतना आसान नहीं है। इसके लिए उन्हें उचित जांच और ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है। यदि पत्रकार के खिलाफ आरोप होते हैं, तो उनका निष्पक्ष और न्यायपूर्ण तरीके से परीक्षण होना चाहिए। यह किसी भी लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, जो उन्हें सरकार और अन्य ताकतवर संस्थाओं से सवाल पूछने का अधिकार देता है। ऐसे में अगर पुलिस बिना ठोस आधार के किसी पत्रकार को फर्जी घोषित करती है, तो यह न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा, बल्कि समाज में प्रेस और आम जनता के बीच विश्वास को भी तोड़ेगा।
इतिहास गवाह है कि कई बार पुलिस ने प्रेस पर दबाव बनाने के लिए या राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में पत्रकारों को निशाना बनाया है। ऐसी घटनाएं केवल लोकतंत्र की आंतरिक ताकत को कमजोर करती हैं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास को खत्म करती हैं।
इसलिए, पत्रकारों के खिलाफ किसी भी प्रकार की कार्रवाई पूरी तरह से कानूनी और प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, न कि पुलिस की मनमानी या सत्ता के दबाव में। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा केवल एक कानूनी आवश्यकता नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जीवंतता के लिए भी अनिवार्य है।
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